SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 79
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इब्राहीम ने कहा कि वह मेरे अब्बा थे । उसने कहा तब मैं आया था । उससे बीस बरस पहले भी मैं आया था, तब कोई और बैठते थे । उसने कहा कि वह मेरे अब्बा के अब्बा थे । फकीर ने कहा कि तुम्हें पक्का मालूम है कि अगली बार मैं जब आऊँगा तब तुम्हीं मिलोगे ? इब्राहीम में बोध जगा । उसने कहा कि अब आप यहाँ रुकें, मैं चलता हूँ । 1 यह बोध का प्रश्न है जिसे जो देंगे वही लौटकर आता है उसी की अनुगूंज सुनाई देती है । गीता का आज का जो सूत्र है, वह हमें अपने आप से जुड़ने की सलाह देता है । यही सूत्र हमें अपने भीतर पल रही उच्छृंखलताओं का त्याग करने की, अपने भीतर बह रहे चेतना के विशृंखल प्रवाह को रोकने की, अपने ही भीतर के मनुष्य अन्तःकरण की शुद्धि की प्रेरणा दे रहा है । स्वयं से मैत्री और प्रेम करके ही, हम स्वयं की शान्ति और शुद्धि का प्रयास कर सकते हैं । स्वयं से लगाव हुए बगैर अन्तःकरण की विशुद्धि के प्रयास रंग नहीं लाते । इस बात को खास ध्यान में लें । सूत्र है तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा, यतचित्तेन्द्रियक्रियः । उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ॥ -चित्त और इन्द्रियों की क्रियाओं को वश में रखते हुए, मन को एकाग्र करते हुए अन्तःकरण की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास कीजिये । गीता ने जो योग-प्रणाली अंगीकार की है वह मानसिक प्रशिक्षण के साधन के रूप में स्वीकार की गई है। योग-साधना निर्देश देती है कि हम अपने को परिवर्तनशील व्यक्तित्व से ऊपर उठाकर असाधारण प्रवृत्ति में ला सकते हैं । योग-साधना के तीन अनिवार्य उपाय हैं । पहला है मन, शरीर और इन्द्रियों को पवित्र रखना । दूसरा है एकाग्रता यानी इन्द्रियों की ओर दौड़ने वाले विचारों को स्थिर करना । 70 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy