________________
बर्तन मत बनाइये कि क्षणिक आग भी गर्म कर डाले । क्रोध की आग, काम की आग, कामना की आग, कितनी तरह की आग है, जो जला रही है हमें । कृपया अपने आप को आग से बचाइये, स्वयं से ही मंगल-मैत्री स्थापित कीजिये।
अगर स्वर्ग को जीना है, तो शान्ति, प्रेम और मैत्री को जीना होगा । स्थापित कीजिए स्वयं से मैत्री । नरक की आग से बचना है, तो शत्रुता की आग को भगाओ। अपने क्रोध, विकार और जीवन की क्षुद्रताओं से मुक्त होने का प्रयास करो। तुम मन्दिर-मस्जिद जाकर पुण्य तो कमा लेते हो, लेकिन काम-क्रोध की वृत्ति कहाँ छूटी ? विकार-अहंकार कहाँ छूटे? न नाम कमाने की चेष्टा ही गई, न धन की लोलुपता लुप्त हुई। काम-क्रोध का पाप जारी है। भटकाव जारी है, निश्चित तौर पर मनुष्य का भटकाव जारी है। गीता हमें भटकाव से ऊपर उठना सिखाती है, सबसे प्रेम करना सिखाती है । और सिखाती है कि तुम अपने मनुष्यत्व पर गौरवान्वित होओ। जीवन के उत्सव में बांसुरी के सुर फूटने दो।
एक महायानी कथा है। एक बौद्ध भिक्षु संन्यासी किसी गाँव से गुजर रहा था । संन्यास एक नई तरह का सौंदर्य दे जाता है। ऐसा सौंदर्य जो जगत का सौंदर्य नहीं है । वह एक तरह की गरिमा दे जाता है जो इस संसार में अजनबी है । तो वह संन्यासी गुजर रहा था एक रास्ते से अपनी मस्ती में झूमता हुआ। एक वेश्या ने उसे देखा। उसने बड़े सुन्दर लोग देखे थे। सम्राट और धनपति देखे थे। वे उसके दरवाजे पर पंक्ति में खड़े रहते थे, लेकिन वह वेश्या उस संन्यासी पर मुग्ध हो गई। पहली बार उसके हृदय में प्रेम उठा । वह भागी और फिर संन्यासी का हाथ पकड़ लिया, उसने कहा-आओ मेरे घर और आज मेरे घर मेहमान रहो । भिक्षु ने कहा आऊँगा जरूर, पर जब जरूरत होगी तब आऊँगा। अभी तुम जवान हो । तुम्हारे कीर्तिगान मैंने भी सुने हैं । धन्यवाद कि तुमने घर आने का निमंत्रण दिया। अभी तो मैं किसी यात्रा पर हूँ; लेकिन जिस दिन जरूरत होगी, तुम भरोसा रखना, मैं आ जाऊँगा।
वेश्या को बड़ी पीड़ा हुई, यह चोट बहुत गहरी थी, अपमानजनक थी। उससे पहले उसने कभी किसी को निमंत्रण नहीं दिया था। पहला ही निमंत्रण असफल रहा । उसने अपने द्वार से कई बार लोगों को लौटाया था, लेकिन आज वह पहली बार किसी और के द्वार से खाली लौटी थी । बात आई गई हो गयी,
68 | जागो मेरे पार्थ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org