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________________ बहू को जीना सिखाए। सास इस तरह से जिये कि बहू उसका सम्मान करने के लिए, उसको आदर-अदब देने के लिए विवश हो जाये । भाई के प्रति इस तरह से त्याग करो कि तुम्हारा भाई परमात्मा को बाद में चाहे, पहले तुम्हें पसन्द करे । जीना हमें आना चाहिये। जीवन के साथ जैसी परिस्थितियाँ मिली हैं, उन परिस्थितियों को हम न भी बदल पायें, लेकिन उन परिस्थितियों के प्रति हमारी जो उद्वेलनता होती है, जो संवेदनशीलता होती है, उनको तो हम अनुद्वेलित कर सकते हैं, शान्त कर सकते हैं, मौन और तटस्थ कर सकते हैं। सत्प्रवृत्तियों में स्थित मनुष्य ही अपना मित्र है और दुष्प्रवृत्तियों में स्थित मनुष्य ही अपना शत्रु है । अगर सन्मार्ग पर चल रहे हो, तो तुम्ही तुम्हारे मित्र हो और विपरीत मार्ग पर अग्रसर हो, तो तुमसे बढ़कर तुम्हारा और कोई शत्रु नहीं है। तुम्हीं अपने मित्र, तुम्हीं अपने शत्रु । यह कितना बड़ा चमत्कार है कि औरों को मित्र बनाने की जरूरत ही नहीं पड़ेगी, अगर तुम्ही अपने मित्र हो जाओ। निज से मैत्री हो । औरों से प्रेम करना तो बाद में सीखो, पहले तो अपने आप से प्रेम करो । जो अपने आप से प्रेम नहीं कर पाया, वह औरों से कैसे प्रेम कर पायेगा? तब प्रेम न होगा, केवल बातों का स्थानान्तरण होगा। तुम अपना दुखड़ा पड़ोसी को सुनाओगे, पड़ोसी अपनी व्यथा किसी और को सुनायेगा और यह क्रम चलता रहेगा । दुःख आगे से आगे विस्तार लेता जाएगा। विस्तार तो हो सुखों का। मनुष्य का अभ्युत्थान स्वर्ग है, पतन नरक है । मन में मित्रता स्वर्ग है, मन में शत्रुता, राग-द्वेष नरक है। घड़ी में स्वर्ग, घड़ी में नरक । पल में मुस्कान, पल में तकरार । स्वर्ग कब नरक में बदल जाये, कहा नहीं जा सकता । मनुष्य न जाने कितनी बार स्वर्ग में जाता है और न जाने कितनी बार अपने आपको नरक में धकेलता है । मैं देखता हूँ कि मन्दिरों में नरक के नक्शे टंगे रहते हैं और उन नक्शों में यह दिखाया जाता है कि आग लगी है और मनुष्य उसमें जल रहा है । यह आग क्रोध की आग है । जिस क्षण क्रोध की तरंग पैदा हो जाये, मेहरबानी करके अपने आपको टटोलिये, वही नरक की आग आप में जलती हुई मिलेगी, सुलगती हुई दिखाई देगी। मुझे बताइये क्या नरक की आग इससे भी भयंकर होती है? नरक को तो हम खुद जी रहे हैं। घर में हर तरह की परिस्थिति बनती है। चार बर्तन घर में हैं तो उनमें टकराहट तो होगी ही। समझ चाहिये, गृहशान्ति चाहिये । तब क्रोध की आग में जलने की क्या जरूरत । अपने आपको टिन का निज से मंगल मैत्री | 67 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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