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अलग है, पर पता चल जाये तो कृष्ण, सुदामा को भी वही सुख, वही समृद्धि और वही सौजन्य प्रदान करना चाहेंगे, जिसे वे स्वयं जीते हैं।
मैंने मित्रों के बीच ऐसी शत्रुता पनपती देखी है कि कल्पना नहीं की जा सकती। कल तक जो मित्र एक-दूसरे के बगैर रह नहीं सकते थे, वे आज परस्पर मुँह देखना भी पसंद नहीं करते हैं । ऐसा करके मनुष्य स्वयं के साथ ही नाइंसाफी करता है । वह स्वयं के अन्तर्-देवत्व को पतित करता है । यह सारा जगत तो एक अन्तर्सम्बन्ध है। जैसे तालाब के ठहरे पानी में एक कंकरी फेंकी जाये, तो सारा तालाब आन्दोलित होता है; जैसे मकड़ी के जाले का एक तार हिलाया जाये, तो सारा जाल प्रभावित हो जाता है, वैसे ही जब हम अपनी ओर से किसी के प्रति कोई शत्रता का भाव रखते हैं, तो सारे विश्व में यह भावना प्रसारित होती है। विश्व-मैत्री की मंगल भावना लिये मित्रता का विस्तार करो, शत्रुता का शमन करो।
कहते हैं कि श्रीलंका के सम्राट ने महान् सम्राट अशोक को मैत्री स्थापित करने के लिए बहुत सारे मूल्यवान उपहार भेजे । अशोक यह विचार करने लगे कि मैं अपनी ओर से श्रीलंका के सम्राट को ऐसी क्या चीज भेजूं कि जो भौतिकता से परे हो। तब सम्राट अशोक ने उस पेड़ की एक डाल तुड़वाकर, अपने पोते महेन्द्र के साथ भिजवाई, जिस पेड़ के नीचे बद्ध को संबोधि उपलब्ध हई थी। श्रीलंका का सम्राट इस अनोखे उपहार के रहस्य को तत्काल नहीं जान पाया। उसने वह डाल अपने राज-उद्यान में आरोपित कर दी । वह पेड़ की डाली बहुत मूल्यवान निकली । जैसे मनुष्य मनुष्य से वार्तालाप करता है, वैसे ही पत्तों ने पत्तों से बातें की, फूलों ने फूलों से बातें की और एक दूसरे से संवेदना आगे बढ़ती गई। पत्तों में रहने वाली बुद्धत्व की आभा, वह मंगल-मैत्री की भावना पत्तों से पत्तों में ही स्थानान्तरित होती गई और बौद्ध धर्म भारत से श्रीलंका, श्रीलंका से जापान और फिर सारे संसार में फैल गया।
मित्रता अगर दोगे, तो मित्रता ही प्रसारित होगी। शत्रुता अगर दोगे, तो शत्रुता प्रतिध्वनित होकर तुम पर ही बरसेगी । गीतों को गुनगुनाओगे; तो वापस गीत ही सुनने को मिलेंगे और गालियाँ दोगे, तो गालियाँ ही वापस तुम्हारी झोली में आने वाली हैं। आप अगर यह सोचें कि एक सास बह की उपेक्षा करते हए भी बहू सास का सम्मान करे, तो यह संभव नहीं है । सास तो आचरण के द्वारा
66 | जागो मेरे पार्थ
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