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लक्ष्य, किसी गहरे प्रयोजन, किसी गहरी प्रार्थना के धागे में पिरोया हो । ज्यादातर लोगों का जीवन समय का एक ढेर है। उसमें कोई संगति नहीं है, उसमें कोई रेखाबद्ध विकास नहीं है।
मनुष्य ही अपना मित्र होता है और मनुष्य ही अपना शत्रु । अब तक हमने मित्रता और शत्रुता के चिर-परिचित मापदंड स्थापित किये हैं, लेकिन गीता हमारे लिए वह मार्ग प्रशस्त कर रही है और यह समझ दे रही है कि मनुष्य के लिए मनुष्य से बढ़कर और कोई मित्र नहीं होता और न शत्रु होता है । भाई से बढ़कर कोई अपना नहीं और भाई से बढ़कर कोई पराया नहीं। भाई अगर अपना बना रहे, तो उस भाई के आगे स्वर्ग भी झकेगा और भाई पराया हो जाये, तो घर और परिवार के लिए कोई नरक नहीं होगा। मनुष्य ही मनुष्य का मित्र है।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुः आत्मैव रिपुरात्मनः । मनुष्य आप ही अपना मित्र है, आप ही अपना शत्र है। कोई अन्य उसका मित्र या शत्र नहीं है । मनुष्य अपना मित्र सदा उसे बनाता है, जिसे वह अपने स्तर का समझता है । मनुष्य कभी पशु-पक्षियों से या ईंट-गारे के बने मकान से दोस्ती नहीं कर सकता । मनुष्य ही धरती पर वह प्राणी है, जिससे मैत्री स्थापित कर सकते हो । अगर मैत्री मंगल-मैत्री बन जाये, तो वही मंगल-मैत्री मनुष्य के लिए धर्म का विशुद्ध अनुष्ठान हो जाता है।
मनुष्य जहाँ-जहाँ मित्रता स्थापित करना चाहता है, वहाँ-वहाँ शत्रुता के बीज भी आरोपित होते रहते हैं। देखने में यह आता है कि जहाँ-जहाँ मित्रता होती है, अंततः वहाँ शत्रुता आ ही जाती है । मित्रता के मायने हुए दो व्यक्तियों के बीच वह संबंध कि जिसके बीच कहीं कोई स्वार्थ न हो, जिसके बीच छल-प्रपंच और प्रवंचना न हो । जब मित्रता के बीच छल-प्रपंच आ जाता है, तो मित्रता शत्रुता में परिणित हो जाती है । एक मित्र तुम्हारी निंदा भी कर दे, तो उसकी निंदा में तुम्हारे सुधार का प्रयास होता है और अगर एक शत्रु तुम्हारी तारीफ़ों के पुल ही बांधता रहे, तो उसमें भी एक व्यंग्य निहित होता है । शत्रु की प्रशंसा से भी सावधान रहो
और मित्र द्वारा की गई निन्दा की चिन्ता मत करो । मित्र हर हाल में तुम्हारा उत्थान चाहता है, तुम्हें कभी भी दरिद्र और गिरा हुआ नहीं देखना चाहता । अगर कृष्ण को यह पता ही न चले कि सुदामा इतनी दीन-हीन हालत में जी रहा है, तो बात
निज से मंगल मैत्री | 65
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