SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 68
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ व्यक्ति में जैसे-जैसे अनासक्ति का भाव प्रखर होता है, वैसे-वैसे परिवार का भाव छूटता जाता है और सारी वसुधा में परमात्मा के दर्शन का भाव प्रगाढ़ होता जाता है । कल ही कोई सज्जन मेरे पास आये और पूछने लगे कि संत लोग कहते हैं कि परमात्मा के दर्शन इस प्रकार होते हैं, तो क्या उन्होंने परमात्मा के दर्शन कर लिये हैं ? गीता को संदर्भित करते हुए मेरा यही कहना है तुम हर आत्मा में परमात्मा को देखो। जो व्यक्ति हर आत्मा में उस परमात्मा की छवि देखता है, वही सही तौर पर परम श्रेय को उपलब्ध हो पाता है। पंथ या संप्रदाय, जिन्हें हम 'धर्म' कहते हैं, कभी किसी व्यक्ति की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त नहीं करते हैं । वे तो हमेशा व्यक्ति को सांप्रदायिक ही बनायेंगे। उन मत-मतांतरों ने तो व्यक्ति को बांधा ही है। उसके बंधनों को प्रगाढ़ ही किया है। अगर व्यक्ति को कोई मुक्त करती है, तो वह उसकी सच्ची धार्मिकता ही है । मुझसे अगर पूछे कि धर्म का संबंध किससे है, तो मैं कहूँगा कि धर्म उस अंधकार की मृत्यु है, जिसे हमने अपने भीतर बटोर रखा है । तमस की मृत्यु और प्रकाश के जन्म का नाम धर्म है। वस्तु के प्रति, व्यक्ति के प्रति, 'मत' और 'धर्म' के प्रति एक निरपेक्षता चाहिये, एक मौन और एक पलक-भाव चाहिये। मैं पत्नी, या बच्चों को छोड़ने की बात नहीं कर रहा हूँ, मैं तो केवल उनसे ऊपर उठने की बात करता हूँ । आपने उनके साथ जो सपने संजो रखे हैं, उनसे मुक्त होने की बात कह रहा हूँ। अगर तुम उन सपनों से मुक्त हो रहे हो, तो मुक्ति हमारे करीब आयेगी। गीता के सूत्रों की जीवंतता मैंने स्वयं अनुभव की है और इसकी प्राणवंतता दूसरों के जीवन में भी पाई है, इसलिए यह जो बात कही गई है कि आसक्ति का त्याग करो और संसार में रहो, वाजिब है। पर प्रश्न है आसक्ति छोड़ें कैसे? आसक्तियों को हम काटें कैसे? क्या इसका भी कोई मार्ग है ? आसक्ति त्याज्य है, यह बात तो ठीक है, लेकिन अनासक्ति के फूल कैसे खिलें? यही सूत्र है जो आसक्ति के त्याग की बात कहता है और अनासक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करता है । यह सूत्र कहता कि सब कर्मों को परमात्मा में अर्पित करते हुए कर्म करना ही आसक्ति से मुक्त होने का सबसे सरल और सुगम तरीका है। कोई भी कृत्य हम यह समझकर करें कि वह कृत्य हम परमात्मा के लिए अनासक्ति का विज्ञान | 59 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy