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कर रहे हैं। अगर भूख भी लगती है, तो यह मत सोचो कि भूख हमें लगती है । भूख किसी और को ही लगती है, जो हमारे शरीर में उतरकर आया है और वह भूख के रूप में प्रकट हो रहा है। भोजन करो तो यह भाव मन में बनाये रखो कि मैं भोजन नहीं कर रहा हूँ, उस भगवान को भोग चढ़ा रहा हूँ। जैसे ही भोजन करने बैठो, बैठते ही परमात्मा का स्मरण करो और कहो कि प्रभु ! स्वीकार करो । 'मैं' का तो भाव ही नहीं रखें। तब वह भोजन ही भोग बनेगा। अगर तुम जो भोजन कर रहे हो, उसे अन्य लोगों में बांटकर खाओ, तो यह भोजन मन्दिर के प्रसाद से भी बढ़कर होगा ।
मैंने बचपन में कबीर की एक पंक्ति पढ़ी थी- 'खाऊँ - पीऊँ सो सेवा, उ बैठूं सो परिक्रमा' । कबीर कहते हैं कि मैं जो कुछ भी खाता-पीता हूँ प्रभु, वह तुम्हारी सेवा है और जो मैं चलता-फिरता हूँ, वह तुम्हारी परिक्रमा है, क्योंकि तुम तो हर ठौर हो, हर जगह हो । हमारी प्रार्थना भी जीवंत हो जाये, अगर हमारा कृत्य हमारा अर्चन बन जाये । अगर आप अपना हर कृत्य भगवान को अर्पित करते हैं, तो निश्चित तौर पर आपसे पाप नहीं होगा। पाप मुक्ति का राज है अकर्तृत्व, अनासक्ति ।
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मैं मन्दिर में जाऊं तो भी मन्दिर में हूँ और अगर न जाऊं तो अपने आपको मन्दिर में ही पाता हूँ। ऐसा नहीं कि मन्दिर ही मेरे लिए पवित्रतम स्थान है, वरन् जिस स्थान को लोग गंदे-से गंदा कहेंगे, वह स्थान भी मेरे लिए पवित्र होगा । भगवान तो भावना के मंदिर में साकार रहते हैं ।
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मुझे याद है कि एक यहूदी व्यक्ति को कैद की सजा हुई। उसने भले ही अपराध किया होगा, लेकिन वह भगवान का बड़ा भक्त था । वह यही कहता कि जहाँ मैं हूँ, वहीं ईश्वर है । उसे जेल में एक बहुत ही बदबूदार और गंदी कोठरी नसीब हुई । एक बार जेलर वहाँ पहुँचा और उसने पूछा- अब तुम्हारा परमात्मा कहाँ है? कैदी ने कहा- परमात्मा तो यहीं, इसी कोठरी में, इसी गंदगी में मेरे साथ । उस परमात्मा का कहाँ तक बखान करूं, जो मेरे लिये इस गंदगी में भी महक उत्पन्न कर रहा है 1
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हमारा कृत्य इतना पवित्र हो कि हमारे खुले प्रांगण और बंद कमरे में कोई फ़र्क़ न रहे । हमारी दृष्टि इतनी पारदर्शी हो कि बाहर और भीतर में कोई भेद न
60 | जागो मेरे पार्थ
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