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________________ कह रहे थे कि इन लोगों को भी कितना पाप लगता होगा, कितनी हिंसा होती है, लेकिन मैंने देखा कि जब वे मछुआरे अपनी नौका पर चढ़ रहे थे, तो उन्होंने तीन बार नौका को छुआ और आसमान की ओर नज़रें उठाईं। उन्होंने ईश्वर का स्मरण किया और मछलियों को पकड़ने के लिए नौका पर चढ़ गये । मैं सोचने लगा कि जिनको लोग हिंसक कहते हैं, वे भी कितने धार्मिक हैं। उन लोगों के मन में भी परमात्मा के प्रति कितनी आस्था है। हम केवल मनुष्य की बाहर की वृत्ति और प्रवृत्ति को देखकर उसके जीवन, उसके व्यक्तित्व का क्षण भर में आकलन कर लेते हैं। हमारा यह आकलन, हमारे ये निष्कर्ष सत्य के करीब नहीं होते हैं। इसीलिए गीता कहती है कि मनुष्य को जीवन ऐसे जीना है, जैसे एक धाय या नर्स होती है । जब किसी महिला के प्रसूति होती है और वह महिला बच्चे को अपना दूध नहीं पिला पाती, तो वह धाय अपना दूध उस बच्चे को पिलाती है, लेकिन अस्पताल से घर आ जाने पर भी वह धाय क्या पूछने आयेगी कि आपका मुन्ना कैसा है? जब तक महिला अस्पताल में थी, उस धाय ने अपना कर्तव्य निभाया, कर्म किया, लेकिन जब वह चली तो निर्लिप्तता! जीवन में निर्लिप्तता हो । जन्म हो, तो भी निर्लिप्तता, मृत्यु हो तो भी शोक-मुक्त । जीवन तो केवल कुछ तत्त्वों का संयोग है । जब वे तत्त्व बिखर जाते हैं तो आदमी बिखर जाता है, उसका जीवन बिखर जाता है। इसी को मृत्यु नाम दे दिया जाता है। आदमी अगर इस मर्म को समझ ले तो आंसू ही नहीं आयेंगे और अगर न समझा, तो वह उसी आसक्ति से, उसी राग-द्वेष के कारण उसके पीछे रोयेगा, आंसू दुलकायेगा । मरा कुछ भी नहीं है । कुछ तत्त्वों का जो संयोग हुआ था, वह संयोग विगलित हो गया, बिखर गया। आसक्त व्यक्ति कभी पाप से मक्त नहीं हो सकता, इसीलिए कृष्ण कहते हैं कि तुम आसक्ति का त्याग करके संसार में रहो । आसक्त व्यक्ति का संसार अनंत होता है । उसका संसार ऐसे ही बढ़ता जाता है जैसे सरोवर में आप एक ही कंकड़ फेंक दें, तो सारा जल तरंगित हो जाता है, केवल एक कंकड़ से। अनासक्त व्यक्ति का संसार छोटा होता है, और वह भी 'न' के बराबर । उसका पारिवारिक दृष्टिकोण अपने घर तक सीमित नहीं रहता । उसका दृष्टिकोण, उसका प्रेम, उसका माधुर्य विस्तार ले लेता है, वह समष्टिगत हो जाता है । अपने-पराये के भेद उसके लिए धराशायी हो जाते हैं। 58 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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