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मुक्ति के प्रबन्ध होने चाहिये, लक्ष्य और गंतव्य मोक्ष होना चाहिये । गीता का आज का जो सूत्र है, वह हमारे लिए यह प्रेरणा लेकर आया है कि व्यक्ति किस तरह से अपने बंधन से मुक्त हो । वह किस तरह निष्पाप जीवन जीये। सूत्र है
ब्रह्मण्याधाय कर्माणि, संगं त्यक्त्वा करोति यः।
लिप्यते न स पापेन, पद्मपत्रमिवाम्भसा ॥ -जो पुरुष सब कर्मों को परमात्मा में अर्पण करके आसक्ति को त्यागकर कर्म करता है, वह जल में कमल-पत्र की भांति पाप से लिप्त नहीं होता।
वह व्यक्ति निष्पाप रहता है, जो कमल की पंखुड़ियों की तरह जल से निर्लिप्त रहता है। संसार में रहकर भी जो व्यक्ति संन्यासी की तरह जीवन जीता है, उस व्यक्ति का जीवन निष्पाप होता है। वह व्यक्ति पाप करता है, तो कर्म के द्वारा उसका प्रक्षालन होता है । वह कर्म इसीलिए करता है कि उसके पाप की शुद्धि हो सके । वह अन्तःकरण की शुद्धि के लिए ही कर्म करता है।
जब तक व्यक्ति संसार में रहता है, कोई बुरा नहीं । जिस क्षण व्यक्ति के अन्तर्हदय में संसार आकर बस जाता है, उसी दिन सब गुड़-गोबर हो जाता है। तुममें अगर राग-द्वेष नहीं है, अगर आसक्ति नहीं है, अगर परमात्मा के प्रति पूरी तरह समर्पण का भाव है, तो कौन कहेगा कि तुम गृहस्थ हो । तब दुनिया का कोई धर्मशास्त्र ऐसा नहीं है, जो आपको संसारी कह सके। अगर संन्यास ले लिया और गृहस्थ-भाव में ही रचे-बसे रहे, तो कोई भी धर्मशास्त्र ऐसा नहीं है, जो आपको संन्यासी सिद्ध कर सके।
आदमी ने संन्यास का संबंध बाहर से लगा लिया है, जबकि गृहस्थ का संबंध इससे जोड़ दिया है कि उस व्यक्ति के कितने बच्चे हैं? और संन्यासी वह जिसके संतान न हुई, जो अविवाहित है । गृहस्थ और संन्यास की इतनी छोटी
और संकुचित परिभाषा नहीं है । संन्यासी वह है, जिसका मन शान्त है, स्थिर है । जिसका मन तो टिका हुआ है, पर जिसके पाँव चलते हैं, वह संन्यासी है । गृहस्थ वह है, जिसके पाँव तो रुके हुए हैं, पर मन अस्थिर रहता है । इस दृष्टि से एक संन्यासी भी गृहस्थ हो सकता है और एक गृहस्थ भी संन्यासी हो सकता है। ___मैंने देखा कि जब मैं मद्रास में समुद्री किनारे से गुजर रहा था, तो उस समय कुछ मछुआरे नौका पर सवार हो रहे थे। मेरे साथ चलने वाले लोग आपस में
___अनासक्ति का विज्ञान | 57
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