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निष्प्रभावी हो जाता है अगर हमारे जीवन का मंगल-कलश ही औंधा रखा है। जीवन तो एक बहती हुई नदिया है । यदि जिंदगी को परिवर्तित करना चाहते हो, तो मजबूत हौसले की जरूरत है, हिम्मत करनी होगी। सर्वप्रथम तो यह कीजिए कि जो घड़ा औंधा पड़ा है, उसे सीधा करो, तो समझ का नीर उसमें उतरेगा। समझ में गहराई आएगी । हृदय के द्वार खोलो, तो भीतर के सागर में पैठ सकोगे।
इस बात की मूल्यवत्ता नहीं होती कि आप कितने साल का जीवन जी चुके हैं, मूल्य इस बात का है कि आप कितने गहरे जाकर जीवन को जी रहे हैं । जीवन में जितनी गहराई होगी, जीवन उतना ही विराट, उतना ही ऊंचा होगा । जीवन में लम्बाई नहीं, गहराई चाहिये । पहले अपने बंधनों को समझो । बंधनों को समझोगे, तो गीता के ये सूत्र हमारा मार्ग प्रशस्त कर पायेंगे। हमारे लिए मुक्ति के द्वार उद्घाटित कर पाएंगे।
केवल तोते की तरह मुक्ति-मुक्ति चिल्लाने से किसी को मुक्ति मिलने वाली नहीं है। केवल निर्वाण के नाम का लड़ या दीपक चढ़ा लेने भर से निर्वाण होता नहीं है। राम-नाम की चदरिया ओढ़ लेने भर से कोई व्यक्ति मर्यादा पुरुषोत्तम राम नहीं हो जाता और श्रीराधा-कृष्ण कह लेने भर से कोई कर्मयोगी श्रीकृष्ण नहीं हो जाता है । तो क्या मनुष्य की मुक्ति का मार्ग यही है कि महावीर की तरह व्यक्ति नग्न रहे और वर्षों तक जंगलों में तपस्या करे? क्या बुद्ध की तरह गृह-त्याग कर बुद्धत्व की साधना करे ? अगर इतना-सा ही मार्ग है, तो सारे लोग जंगलों में चले जाएंगे। तब जंगल, जंगल नहीं रहेंगे, सारे जंगल शहर हो जायेंगे। परिवर्तन कहाँ होना चाहिये? रूपान्तरण किस क्षेत्र में होना चाहिये? यह बात मुद्दे की है । स्थान और रूप-रूपाय बदलने से कुछ अन्तर भले ही पड़ता हो, पर मूल परिवर्तन के लिए हमें मूल मार्ग की ओर बढ़ना होगा, मूल स्त्रोत की ओर उन्मुख होना होगा। इसी रूपान्तरण के लिए मैं पहली बात कहूंगा कि हम यह समझें कि हमारे बंधन क्या हैं? क्या हमारे बंधन आज के ही बंधन हैं या अतीत के संबंध भी उनसे जुड़े हैं ? मुक्ति बाद में, मोक्ष बाद में, पहला प्रयास तो बंधनों को, काराओं को, समझने का होना चाहिये । ___बंधनों से मुक्त होने के लिए गीता में दो मार्ग सुझाये गये हैं-पहला मार्ग है संन्यास का और दूसरा मार्ग है कर्मयोग का । कृष्ण दोनों मार्गों पर प्रवृत्त होने की प्रेरणा देते हैं । कर्मयोग का मार्ग संन्यास से काफ़ी सुगम, काफ़ी सुविधापूर्ण
54 | जागो मेरे पार्थ
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