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________________ है। कर्मयोग का सीधा-सा अर्थ है कि कार्य करते हुए जीओ। जीने के दो ही पहलू हैं-गृहस्थ या संन्यास । पूरी तरह गृहस्थ में रच-बस जाना भी व्यक्ति के लिये घातक है और जब तक व्यक्ति गृहस्थ के भाव से मुक्त न हो जाये, तब तक उसका संन्यासी बनना भी उसके लिए घातक है । एक गृहस्थ व्यक्ति भी मुक्त हो सकता है और एक संन्यासी व्यक्ति भी मुक्ति को उपलब्ध कर सकता है। एक संन्यासी व्यक्ति संन्यास को लेकर बंधनों को और प्रगाढ़ भी कर सकता व्यक्ति की मुक्ति का संबंध गृहस्थ या संन्यास से नहीं है, क्योंकि कुछ गृहस्थ मैंने ऐसे देखे हैं, जो गृहस्थ में होते हुए भी संन्यासी हैं। आपने 'रामचरितमानस' या 'रामायण' का गुणगान पढ़ा-सुना है, लेकिन मैंने भरत के जीवन का भी उतनी ही सूक्ष्मता से अवलोकन किया है। कोई व्यक्ति अगर राम होकर मुक्त हो सकता है, तो मेरी समझ से वह भरत होकर भी मुक्त हो सकता है। वन में जाकर व्यक्ति वनवासी बने, यह साधारण बात है । राजमहल में रहकर व्यक्ति वनवासी का जीवन जीये, मैं इसी को गृहस्थ-संत कहता हूँ । मैंने जीवन के सारे पहलुओं का जो निष्कर्ष समझा है, उसके अनुसार व्यक्ति न तो बहुत जल्दी संन्यासी होने की चेष्टा करे और न संसार के कीचड़ में जाकर धंसे । व्यक्ति के लिए एक ही सूत्र होगा कि वह गृहस्थ-संत बने। एक बात ध्यान रखें कि अनुभव आदत को बनाती है । आदमी आदत में जीता है, होश में नहीं जीता। एक बार आदत बननी शुरू हो जाए तो बननी शुरू हो जाती है। बीज को जमीन में मत डालो तो अंकुर नहीं निकलेगा। एक बार बीज को डाल दो तो अंकर निकलता जाता है और दरख्त बन जाता है। बीज को जमीन में मत डालो, रखा रहने दो तो अंकुर नहीं निकलता। एक दफा अनुभव से गुजरो तो बीज जमीन पकड़ लेता है और आदत का अंकुर बढ़ना शुरू हो जाता है । फिर वह बढ़ता जाता है। यही कारण है कि महावीर ने बच्चों को भी दीक्षा का मार्ग दिया। अब तो मनोवैज्ञानिक भी कहते हैं कि सात साल के बाद आदमी में बदलाहट मुश्किल हो जाती है । डी.एच.लारेंस ने 'सब्सीट्यूट मदर' पर काफी प्रयोग किये । जैसे-बतख का बच्चा हो, तो बतख ही सबसे पहले उसे मिलती है । मुर्गी का बच्चा हो तो मुर्गी ही सबसे पहले उसे मिलती है । लारेंस अनासक्ति का विज्ञान | 55 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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