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जीवन के कारागार में कैद तो सारे ही लोग हैं, किन्तु अपनी मुक्ति के लिए कोई साहसिक अभियान छेड़ सको, तो हाथों-पांवों में पड़ी सघन जंजीरें टूट सकती हैं, बेड़ियाँ खुल सकती हैं। ये बेड़ियां, ये जंजीरें जन्म-जन्मांतर से हमारे हाथ-पांवों में पड़ी हुई हैं । ये बेड़ियाँ जितनी बाहर की हैं, उससे कहीं ज्यादा भीतर की हैं । दृश्य हों तो दिखाई भी दे जायें, ये अदृश्य बेड़ियाँ हैं। इनकी पीड़ा और भार सघन है, पर आदत पड़ गई है इन्हें ढोने की । ये बेड़ियाँ और जंजीरें अब तो इतनी सुखद लगने लग गई हैं कि जंजीरें, जंजीरें लगती ही नहीं हैं। सोने की चेन-सा चैन और सुकून ये जंजीरें देती हैं। अब तो इन जंजीरों के बगैर जीना भी बहुत बोझ लग रहा है । ये जंजीरें तो खोलनी ही होंगी, आज नहीं तो कल, इस जन्म में नहीं, तो अगले जन्म में । ये जंजीरें खुलें, तो ही मुक्ति का आस्वादन संभव हो सकेगा।
जंजीरें काम-क्रोध की, वैर-विरोध की हैं, अपराध- आक्रोश की हैं। अगर कोई सच्चे दिल से यह चाहता है कि उसे क्रोध न आये, तो उसके लिए पहला चरण होगा कि वह यह स्वीकार करे कि उसके पाँव में क्रोध की जंजीरें पड़ी हैं । जब तक इस बात को स्वीकार करोगे, तब तक क्रोध से निवारण का इंतजाम कैसे करोगे ? क्रोध का कारण कैसे ढूंढोगे ? अगर इस तथ्य को स्वीकार कर लेते हो कि तुम बंधे हुए हो, तो तुम अगले चरण के रूप में यह जानने का प्रयास करो कि मैं किससे बंधा हूँ ?
किसी ने मुझसे पूछा कि मोक्ष की विधि क्या है ? मैंने कहा, मोक्ष की विधि तो बाद में ढूंढना, पहले यह ढूंढो कि तुम किससे बंधे हुए हो ? तुमको किसने बांध रखा है ? जिस दिन तुमने बंधन को समझ लिया, उसी दिन जीवन में मोक्ष की पहली किरण उतर आएगी। जब तक अपने बंधनों को न समझे, तब तक मोक्ष - निर्वाण-परमात्मा- ये सब बातें केवल बातें ही रह जायेंगी । केवल बातें कर लेने भर से या धर्म के नारे लगा लेने भर से आचरण क्रियान्वित नहीं हो जाता । बंधन ही न समझे, तो मोक्ष कैसे उपलब्ध होगा ? बंधन की समझ में ही मोक्ष निहित है ।
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क्या सच्चे तौर पर हमारे मन में बंधनों से मुक्त होने की पिपासा, मुक्त होने की तड़फन, पीड़ा या कसक है ? या केवल संतों के मुख से सुनते आये हो कि तुम बंधे हुए हो और मुक्ति का प्रयास करो। संतों के मुख का सत्संग
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अनासक्ति का विज्ञान | 53
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