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________________ जरथुस्त्र का मानना रहा कि प्रकृति के अलावा कोई धर्म नहीं, जब तुम्हें प्यास लगती है तो जानते हो कि तुम्हें पानी की जरूरत है । जब तुम्हें भूख लगती है तो जानते हो भोजन की जरूरत है। प्रकृति के अलावा अन्य कोई मार्गदर्शक नहीं है । आकांक्षा को जरूरी मानते हुए उन्होंने चेतना को तीन स्तरों में बाँटा । ऊँट जो कि एक गुलाम की चेतना है, जो कि लादा जाना चाहता है । शेर शक्ति की आकांक्षा है । तीसरा है शिशु । शिशु की सरलता ही सर्वोच्च है । यही एक मात्र वस्तु है जो तुम्हें धार्मिक बनाती है। आकांक्षा का अंतिम काम है स्वयं का अतिक्रमण किया जाना । बुद्ध जिसे 'डिजायरलेसनेस' कहते हैं । जरथुस्त्र इसे 'विललेसनेस' कहते हैं, आकांक्षा-रहितता कहते हैं। कृष्ण इसे कामना-मुक्ति कहते हैं, निष्काम होना कहते हैं। गीता में कृष्ण ने कहा-मुझे जानने का प्रयत्न करो । अगर मेरा चिन्तन नहीं कर सकते तो योगाभ्यास करो। यदि तुम्हें अनुकूल नहीं पड़ता तो अपने सारे कर्मों को मुझे अर्पित करके मेरी सेवा का प्रयत्न करो । यदि यह भी कठिन दिखे तो अपने कर्तव्य का पालन करो, किन्तु परिणाम की लालसा मत रखो और न ही फल की आकांक्षा रखो । निःसंदेह, कर्म की अपेक्षा ज्ञान उत्तम है, ध्यान ज्ञान से उत्तम है, कर्मफल का त्याग ध्यान से उत्तम है, कर्मफल के त्याग से शांति होती है । यह मन की शांति का सूत्र है। . पहली बात कही है कि जो व्यक्ति बिना इच्छा के, अपने आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा सन्तुष्ट रहता है, वह बन्धन से मुक्त रहता है । जो अप्राप्त की कामना नहीं करता और प्राप्त में तृप्त रहता है, वह आदमी सदा सुखी रहता है । उसे कोई इच्छा नहीं, कोई कामना नहीं, कोई तड़फन नहीं, कोई भटकाव नहीं। वह जानता है कि आसमान के छोर की अनंतता की तरह इच्छाओं की भी कोई सीमा नहीं है। इच्छा का अन्त तो वहीं है, जहाँ व्यक्ति जो जैसा है, जिस रूप में है, उसमें मस्त रहे, न चिंता, न फ़िक्र । आज की तारीख में परमात्मा ने जैसा जीना हमारे लिए लिखा है, हम उसमें तृप्त, संतुष्ट और मस्त हैं, यही तो मुक्ति को जीना हुआ। ___एक तो मनुष्य की इच्छाएँ होती हैं और दूसरी होती है मनुष्य की इच्छा-शक्ति । इच्छाएं मनुष्य को भटकाव देती हैं, जबकि इच्छा-शक्ति मनुष्य को विकास देती है। इच्छाएँ अनंत हई जा रही हैं और इच्छा-शक्ति को दफ़न किया जा रहा है । अगर हम अपनी इच्छाओं को इच्छा-शक्ति में बदल दें, तो वह मुक्ति का माधुर्य | 47 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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