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________________ -जो बिना इच्छा के अपने आप प्राप्त हुए पदार्थ में सदा सन्तुष्ट रहता है, जिसमें ईर्ष्या का सर्वथा अभाव हो गया है, जो हर्ष, शोक आदि द्वन्द्वों से सर्वथा अतीत हो गया है, ऐसा सिद्धि और असिद्धि में सम रहने वाला व्यक्ति कर्म करते हुए भी उसमें नहीं बंधता। गीता का यह सूत्र हमारे जीवन के विकास के लिए, मुक्ति के माधुर्य के लिए स्वर्णिम सूत्र है। आदमी कर्म करते हुए भी कर्मों में नहीं बंधता। बड़ी कीमिया बात है । कर्म में अकर्म की दृष्टि दी गयी है । एक कर्म होता है शरीर से, दूसरा होता है मन से । मन से तुम मुक्त हो गये, तो शरीर से होने वाला कर्म, कर्म की संज्ञा में ही नहीं आता। कर्म मन का परिणाम है । मन से मुक्त हुआ व्यक्ति कर्म से मुक्त ही होता है । समत्व में स्थित व्यक्ति स्थितप्रज्ञ होता है । अनासक्त भाव से, कर्त्तव्य-कर्मों को परमात्मा के चरणों में अर्पण करके जीने वाला भगवान को प्रिय होता है, वही भक्त और वही ज्ञानी होता है । परमात्मा के ज्ञान में स्थिति ही कर्म-मुक्ति का सरल तरीका है । आचार्य कुंदकुंद कहते हैं कि सम्यक् दृष्टा जीव चाहे चेतन द्रव्यों का सेवन करे या अचेतन द्रव्यों का, उसके द्वारा कर्मों का बंधन नहीं होता। उसके द्वारा कर्म निर्जरित और जर्जरित ही होते हैं । यही तो मुक्ति का रहस्यभरा सत्र है, यही मुक्ति को अपने आप में जीने का मार्ग है। वह मुक्ति, मुक्ति ही क्या, जिसे हम शरीर को छोड़ने के बाद उपलब्ध करें। सही मुक्ति तो वह है जिसे देह में रखते हुए भी हम जी सकें । उस मुक्ति को जीने के लिए कर्म करते हुए भी कर्मों का बन्धन न हो, व्यक्ति बन्धन-मुक्त और निर्ग्रन्थ रहे, इसके लिए कुछ बातें सुझाई गई हैं । इन बातों को हम मुक्ति के सूत्र समझें । मुक्ति के इन सूत्रों को जरथुस्त्र ने कहा-मैं मनुष्यों के लिए चलता हूँ, मनुष्यों को टुकड़ों के बीच छिन्न-भिन्न और बिखरे हुए पाना मेरे लिए नया अनुभव है। और जब मेरी आँख वर्तमान से अतीत में भागती है सदा उसे टुकड़ों में बंटे अंग तो मिलते हैं लेकिन मनुष्य नहीं । पृथ्वी का वर्तमान और अतीत अफसोस ! मेरे मित्रों वहीं मेरा सर्वाधिक असह्य बोझ है और मैं नहीं जानता कि जीना कैसे? यदि मैं उसका दृष्टा न होता जिसे आना ही है। एक दृष्टा, एक आकांक्षी एक सजग, स्वयं एक भविष्य की ओर भविष्य तक का एक सेतु । यही मेरी समूची कला और लक्ष्य है । एक में पिरोना और उस सब को साथ लाना जो टुकड़ा है, पहेली है। 46 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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