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अगर फूल से जाकर कहो कि हम एक स्मारिका छपाना चाहते हैं, जिसमें तुम्हारी आत्मकथा शामिल करने की इच्छा है । तुमने अपने जीवन में क्या-क्या किया है, सबका ब्यौरा दे दो, तो फूल कहेगा–मैं क्या ब्यौरा दूँ । मैंने तो कुछ किया ही नहीं। मैं तो अपने आप में स्वतः हो रहा हूँ । मेरा होना ही मेरी सुवास है। इस सवास को जन-जन तक पहुँचाने का श्रम भी मैंने नहीं किया। लोग मेरे सामीप्य में आये, पल भर को बैठे, सुवासित हुए और चल दिये। मैंने किया नहीं, मुझ से हो गया। यही बात तो कृष्ण समझाना चाहते हैं, हृदयंगम कराना चाहते हैं कि तुमसे हो जाये, तुम करो नहीं । मैं करता हूँ, मैंने किया, मेरे करने से होता है-ऐसा सोचना अज्ञान है और ऐसा सोचने वाला व्यक्ति अज्ञानी होता है । मेरे से हो रहा है, मेरे द्वारा हो रहा है, मेरे द्वारा ऐसा होना है, प्रकृति मेरे द्वारा ऐसा करवाना चाहती है, इसलिये ऐसा हो रहा है-यह सोच, यह कर्मयोग एक समर्पण है । अपने कर्तव्य-कर्मों को भगवान के श्रीचरणों में अर्पित करना है।
निश्चित तौर पर कृष्ण हम सब लोगों को ज्ञानयोग देकर एक ज्ञानी, एक कर्मयोगी के रूप में देखना चाहते हैं । जिस तरह महावीर चाहते हैं कि हर व्यक्ति मुक्त हो, स्वतंत्र हो; हर व्यक्ति अपने जीवन को प्रेम, शांति, आनन्द और माधुर्य से पूर्ण करे, यही बात श्रीकृष्ण चाहते हैं । शब्दों में फ़र्क भले ही पड़ जाये, पर वह जो लक्ष्य है, उसमें कहीं कोई फर्क नहीं है । जो सुख आपको महावीर देंगे, वही सुख श्रीकृष्ण दे जायेंगे। समझ चाहिये, वह ज्ञान चाहिये, जो समस्त आबद्ध कर्मों को जलाकर भस्म कर दे।-'ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुतेर्जुन ।'
भटकाव समझ के अभाव के कारण है । समझ ही आँख है । मनुष्य की तीसरी आँख । आँख बन्द यानी फिर भटकाव चालू । आँख खुली, कि मार्ग हाथ लगा।
मैने सुना है : यहीं का एक मुसलमान व्यक्ति है । आज से पचास साल पहले जब छापेखाने में उर्दू की किताबों को छापने के लिए लोहे और जस्ते के अक्षर नहीं हुआ करते थे, तो लिपिकार ही उर्दू की किताबों को लिखते थे । जब वह व्यक्ति भारत में था, तो उसे तीस रुपये मासिक मेहनताना मिलता था। उसके पाकिस्तानी मित्रों ने दरख्वास्त भिजवाई कि अगर तुम पाकिस्तान आ जाओ, तो तुम्हें वहां से कई गुना ज्यादा मेहनताना मिलेगा और दूसरी सुविधाएँ मिलेंगी सो अलग । लोभ और लोलुपता के कारण उसने पाकिस्तान जाने का मानस बना ही
44 | जागो मेरे पार्थ
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