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स्वीकार करते हैं, वे धर्मशास्त्र कहते हैं कि चौरासी लाख जीव-योनियों में मनुष्यत्व की जीव-योनि एक महान पुण्य-प्रताप का परिणाम है । इस उपलब्धि को पशुता के धरातल पर जीये रखा तो यह फूल निष्फल चला जायेगा । फूल कोई सुरभि नहीं दे पायेगा। तब आपके जीवन में कोई आत्मा नहीं होगी। हमारे सारे कर्म पशु तुल्य होंगे; हम इस योनि में भटकते हए, उलझते हुए प्राणी मात्र होंगे। सारी दुनिया ही भटक रही है; सारी दुनिया ही उलझी हुई है । अगर हम भी उस भटकाव में उलझे हुए हों; अगर हम उन अंधे-अभिशप्त गलियारों में दिग्भ्रमित हों, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये । आखिर हम दुनिया से अलग नहीं हैं, इस दुनिया के स्वभाव, इसके प्रभाव से पृथक नहीं हैं ।
कुछ लोग चैतन्य होते हैं, जग जाते हैं । मनुष्यत्व के इस फूल के गौरव को वे समझ जाते हैं । वे जान ही लेते हैं कि जीवन की सुवास को उपलब्ध करना है, तो जीवन को फूल की तरह खिला लेना जरूरी है । फूल ही न खिला, तो सुवास कहाँ से आयेगी? माना आप अपने जीवन के प्रति सजग हैं; जीवन का फूल दुर्गन्धित नहीं है, मगर यही पर्याप्त नहीं है। हमारे भीतर प्रभुता की सुवास होनी भी उतनी ही अहमियत रखती है । फूल अगर सुगन्धित नहीं है, तो वह शीश पर धारण करने के काबिल नहीं होगा। हां, तब फूल सौन्दर्य जरूर बरसायेगा । उस फूल को हम सौन्दर्य का प्रतीक जरूर कहेंगे; शिव का सामीप्य देने वाला संबोधन दे देंगे।
जिस फूल में सुगन्ध नहीं है, वह फूल कभी गले का हार नहीं हो सकता। यही फ़र्क तो कागजी फूल और वास्तविक फूल में होता है; यही फ़र्क एक जिंदे इन्सान और एक मुर्दे इन्सान में होता है । शिव में से अगर इकार हटा दो तो वह शव हो जाता है । और शव में अगर इकार जोड़ दो, तो वह इकार चाहे इंसानियत का हो या ईश्वरत्व का, वह शव, शिव हो जाता है । बेहतर यही है कि फूल सुवासित हो, जीवन सुंगधित हो । उस सुवास को फैलाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। वह सुवास अपने आप फैलेगी। फूल कभी न्यौता नहीं देता कि तुम आओ मेरे पास और मेरी खुशबू, मेरे मधुबन के रस ले जाओ। फूल कोई सुवास फैलाने के लिये नहीं खिलता। फूल तो खिलता है, बस अपने आनन्द के लिए, अपनी मौज के लिए, फूल सुवासित होता है, क्योंकि उसकी सुवास ही उसके अस्तित्व का सही परिणाम है।
मुक्ति का माधुर्य | 43
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