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________________ समझ की हैं। __कहते हैं एक पादरी स्वर्ग चला गया। उसे पक्का भरोसा था कि ईश्वर से उसका संवाद रहा है। अब इस समझ का क्या कीजिएगा? समझ और भरोसा रहा है, तो रहा है । समझ भरोसे के साथ होती है। उसे पक्का भरोसा था मैं इतने बरस तक रोज इस प्रभु की प्रार्थना करता रहा हूँ तो मेरे लिए तो स्वर्ग के दरवाजे खुले मिलेंगे, मगर ऐसा हुआ नहीं । पादरी ने देखा कि स्वर्ग पर एक बहुत बड़ा-सा दरवाजा है । कई घंटों तक वह उसे ठोकता रहा । किसी ने नहीं सुना । पादरी को बहुत दुःख हुआ कि कोई सुन क्यों नहीं रहा । वह जब हारकर बैठने ही वाला था कि अचानक पास की खिड़की खुली । उसमें से हजार आँखों वाले किसी शख्स ने झाँका और पूछा कौन है । पादरी उन सूर्य-सी चमकती हुई आँखों का सामना न कर सका तो दरवाजे की सेंध में छुप गया । दरवाजा इतना बड़ा था कि पादरी सेंध में समा गया। उसने पूछा कि कौन हो, कहाँ से आये हो, पादरी ने जवाब दिया धरती से आया हूँ। उसने कहा-कौन-सी धरती, कोई एक धरती हो तो बात करें। पादरी का उत्साह जाता रहा । उसे लगा, जब यह शख्स धरती में गड़बड़ कर रहा है तो वह मेरे देश, मेरे चर्च को कैसे जानेगा। फिर भी उसने हिम्मत करके कहा कि सूरज का उपग्रह है। उसने कहा-सूरज, कौन-सा सूरज । उसे कौनसे इन्डेक्स में ढूंढें । पादरी ने कहा कि यह सब तो ठीक है । आप थोड़ा भीतर होकर बात करें क्योंकि आपकी आँखों की रोशनी में कुछ दिखाई नहीं देता भगवन् । उसने कहा-भाई मैं भगवान नहीं हैं, भगवान तो अन्दर आराम कर रहे हैं। मैं तो यहाँ का दरबान हूँ । पादरी को लगा कि जब मैं दरबान के तेज को नहीं सह पा रहा हूँ, तो भगवान को कैसे सहूँगा। दरबान ही भारी पड़ रहा है, तो भगवान तो और भारी पड़ेंगे। पादरी की समझ की तह हम सबकी अपनी समझ है । इसी को महावीर ने अहंकार कहा है। जीवन को हम नहीं समझ पा रहे हैं। हमने जीवन के नाम पर बहुत बड़ी-बड़ी बातें संग्रह कर ली हैं । जीवन तो कुछ और है। मनुष्य तो प्रभुता और पशुता के बीच का बिन्दु है, सेतु है, ठीक वैसे ही जैसे वाहन में धुरी होती है। मनुष्यत्व का फूल जन्म-जन्म के महान् पुण्य-प्रताप से ही खिलता है । जिन शास्त्रों की आप पूजा करते हैं; जिन शास्त्रों की वाणी आप बड़े प्रेम और श्रद्धापूर्वक 42 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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