________________
आता, तो इसका दोष उन अंगुलियों का है, जो बांसुरी पर ढंग से सध नहीं पाईं। अगर कृष्ण की बांसुरी से वह संगीत और वे स्वर-लहरियाँ ईज़ाद हो सकती हैं, जिससे सारा विश्व आलोड़ित हो जाये, तो हमारे जीवन में भी वे स्वर-लहरियाँ क्यों नहीं प्रस्फुटित हो सकती?
मनुष्य के पास जीवन को आनन्दमय बनाने की कला नहीं है। यह बड़े ताज्जुब की बात है कि ठेठ बाहर से आदमी अपनी आत्म-शान्ति, अपनी आत्म-मुक्ति के लिये भारत तक पहुंच रहा है, लेकिन भारत का आदमी अनजान, बेखबर बना हआ है। मनुष्य के हाथ में उसका अपना भाग्य नहीं रहा, इसीलिये मनुष्य भगवान भरोसे हो गया है। भारत भाग्य विधाता' विधाता ही भारत का भाग्य है । मनुष्य का जीवन पर भरोसा नहीं रहा । नतीजतन यहाँ का मनुष्य जीवन के आनन्द, उसकी शान्ति और उसके माधुर्य से वंचित है।
गंगा के किनारे बैठा व्यक्ति ही मैल से सना हो, तो आश्चर्य होना स्वाभाविक है । आगर नहाने का प्रयास भी किया जाता है, तो भी पशु की तरह, एक हाथी की तरह । हाथी कितना ही नहाले, लेकिन बाहर आते ही पीठ पर मिट्टी ही उंडेलेगा । ऐसे ही हम सुबह-शाम अपने पापों को धोने का इंतजाम कर लेते हैं, लेकिन वे इंतज़ाम कोरे इंतज़ाम भर रह जाते हैं । पाप पूरे धुल नहीं पाते और पापों की परत, पापों की काई और चढ़ जाती है।
धर्म-कर्म-मन्दिर-परमात्मा ये सब तो दूर की बातें हैं । आदमी का न तो धर्म के प्रति लगाव है और न पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक या परमात्मा के प्रति ही उसका जड़ाव है । उसका लगाव तो धन और यश के प्रति है। इसके लिए वह सुबह से रात तक मेहनत करता है । मनुष्य की आसक्ति अपनी संतान के प्रति है; अपने व्यवसाय, पति या पत्नी के प्रति है । अगर जितना लगाव पत्नी के प्रति है, उतना ही मां-बाप के प्रति होता, तो बात काफ़ी कुछ हाथ में होती; जितना लगाव उसका धन के प्रति है, उतना ही धर्म के प्रति होता, तो लगाम उसके हाथ में रहती। आदमी के हाथ में तो बस धन आना चाहिये । धन के कारण आदमी धर्म को भी दरकिनार कर सकता है।
धन आये मुट्ठी में, ईमान जाये भट्टी में।
40 | जागो मेरे पार्थ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org