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प्रीति था। पत्नी चुप हो गई। अगले ही दिन जब फ़ोन की घंटी बजी, तो पत्नी ने फ़ोन उठाया। पति ने स्नान करते हुए ही पूछा-किसका फ़ोन है? पली बोली-तुम्हारी उसी रेस वाली घोड़ी का... ।
- काम रास्ते निकालता है । विकृत चेतना विकृति के रास्ते निकाल ही लेती है। यह नरक की आग है, जो आदमी को जलाये जा रही है। मन में बैठी मेनका तुम्हें डिगाने को तैयार है। सावचेत होना होगा नियंत्रण चाहिये, सजगता चाहिये। तुम मुझसे प्यार करना चाहते हो, तुम्हें प्यार करने की पूरी छूट है, बस, शरीर-भाव को वहीं रख आओ, जहाँ जूते और कमीज उतारी है।
मेरी सेज हाजिर है पर जूते और कमीज़ की तरह तू अपना बदन भी उतार दे उधर मूढ़े पर रख दे, कोई खास बात नहीं
यह अपने-अपने देश का रिवाज है। भारत का रिवाज आत्म-मिलन का है, ह्रदय-मिलन का है । विदेह-भाव से जिया गया प्रेम ही परमात्मा के प्रेम को जीना है। थोड़ी दष्टि बदलो। जिस नर या नारी को देखकर तुम्हारा मन विकृत होता है, उसे नर या नारी के रूप में नहीं, नारायण के रूप में देखो। नर के आकार में निराकार को देखो। तब मन अपने आप शान्त हो जायेगा। मन में कोई उद्वेग उठ पड़े, तो ऐसा नहीं कि उसका दमन कर दो, बल्कि उसे देखो, समझो और अपने से निर्लिप्त और निरासक्त करने का प्रयास करो। यह समझने का प्रयास करो कि यह उद्वेग तुम्हारे मन का है, शरीर का है, तुम्हारी आत्मा का नहीं है। जैसे-जैसे व्यक्ति का ध्यान अपने शरीर से हटता चला जाता है, अपनी ज्योति पर केन्द्रित होता चला जाता है, वैसे-वैसे व्यक्ति काम के पाप से ऊपर उठता चला जाता है । जो व्यक्ति निष्पाप हो रहा है, कर्ता-भाव से मुक्त होकर संसार में जी रहा है, कृष्ण कहेंगे वह व्यक्ति संन्यासी है, गृहस्थ-संत है । उस व्यक्ति के लिए कहीं कोई बंधन का हेतु नहीं बचता । इसीलिए श्रीकृष्ण कहते हैं तुम अपने सारे कर्मों को मुझे अर्पण कर दो। वे दो तरह की भाषा एक साथ दे रहे हैं, एक संकल्प की भाषा और दूसरी, संकल्पों को पूरा करने के लिए संघर्ष की भाषा । समर्पण तो इस रूप में कि तुम्हारा कर्ता-भाव
कर्मयोग का आह्वान | 37
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