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________________ बांस बांसुरी के स्वर दे सकता है । उसमें सुर उतरने दो । संगीत का संसार स्वतः जन्मेगा । संगीत अपने आप उतर आएगा। बस, तन्मयता चाहिये; कर्म ही हमारी समर्पित आराधना हो जाये। कृष्ण कहते हैं कि तू पूरी तरह से अपने आपको समर्पित कर दे, कर्ता-भाव से मुक्त हो जा। करने वाला मैं हूँ–यह भाव ही तुम्हारे से छूट जाना चाहिये । जिस क्षण तुम्हारे भीतर से यह भाव छूटेगा, उसी क्षण तुम्हारे भीतर से आसक्ति उठ जायेगी । अनासक्त भाव से अगर व्यक्ति अपने कर्त्तव्य-कर्मों को करता रहे, तो कृष्ण की दृष्टि से वह व्यक्ति पूर्णरूपेण मोक्ष का अधिकारी होता है । कर्मयोग की प्रेरणा इसलिए है, ताकि व्यक्ति अपने व्यावहारिक जीवन की आवश्यकताओं को पूरा कर सके और ज्ञानयोग की प्रेरणा इसलिए है, ताकि संसार में रहकर भी वह निरासक्त और निर्लिप्त रह सके । यह सूत्र संसार में संन्यास की पहल है । कर्म करना संसार है और अनासक्ति संन्यास है । अनासक्ति-पूर्वक कर्म करना संसार में संन्यास की ही पहल है। यह व्यक्ति को गृहस्थ-संत बनाने की पहल व्यक्ति संसार में रहे, ताकि वह अपने परिवार, अपने समाज और राष्ट्र का भरण-पोषण कर सके तथा ज्ञानयोग के द्वारा आत्मनिष्ठ इसलिएरहे, ताकि व्यक्ति अपनी आत्मा के स्तर से नीचे न गिर जाये। यह ज्ञानयोग और कर्मयोग का समन्वय है । ऐसा नहीं है कि कृष्ण ने ही इस समन्वय-स्थापना का प्रयास किया वरन् कृष्ण से पूर्व भगवान ऋषभदेव ने भी असि, मषि और कृषि का सन्देश देकर दोनों के मध्य समन्वय की सार्थक कोशिश की थी । असि यानी शस्त्रविद्या, मषि यानी लेखन कला व कृषि यानी उद्योग कला । ऋषभ ने तीनों की प्रेरणा दी । यह प्रेरणा कर्मयोग का ही प्रवर्तन है। ज्ञानयोग और कर्मयोग-ये दोनों मिलकर ही जीवन को पूर्णता देते हैं। अकेला कर्मयोग भी अधूरा है और अधूरा ज्ञानयोग भी अपूर्ण है । जो व्यक्ति पूरी तरह से आत्मरमण कर रहा है, उस व्यक्ति के लिए तो कर्मयोग की कोई प्रेरणा नहीं है, लेकिन जो व्यक्ति संसार में रह रहा है, उसके लिए कर्मयोग की प्रेरणा है ही। कर्मयोग इसलिए कि भीतर का प्रमाद, भीतर की अकर्मण्यता निकल सके । जहाँ महावीर अप्रमाद की बात कर रहे हैं, वहीं श्रीकृष्ण कर्मयोग की प्रेरणा दे रहे हैं। 34 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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