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सकते हैं । बर्डसवर्थ ने कहा है आँख अपने काम के बिना, देखने के बिना नहीं रह सकती । न हम कान को यह आदेश दे सकते हैं कि वह सुनने का काम बंद करे । हम जहाँ कहीं रहेंगे, हमारी इच्छा के विरुद्ध या इच्छा के अनुसार अनुभव करना नहीं छोड़ सकते । इसीलिए गीता कर्म करने को प्रेरित करती है, कर्म - बंधन से मुक्त होने का आदेश नहीं देती। इसीलिए अर्जुन को आदेश था कि वह युद्ध करे । मुक्त आत्माओं का भी कर्तव्य है कि वे दूसरों को अपने भीतर की दैवीय शक्ति की खोज में सहायता करें। गीता संन्यास और त्याग में भेद करती है । सब प्रकार के ऐसे कर्मों का त्याग जो फल की आकांक्षा के लिए किये जाते हैं, संन्यास है और त्याग, कर्मों के फल को छोड़ देने का नाम है । इसीलिये गीता 'योगः कर्मऽसुकौशलम्' का सिद्धांत स्थापित करती है । ऐसा कर्म जो कुशलता से किया जाए। ऐसा कर्म जो बंशी की तरह किया जाए। बंशी में जैसे सुर भरे जाते हैं, वह उसी के अनुसार कर्म करने लगती है । वैसे ही स्वर और संगीत लहराते हैं ।
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मेरे गीत शोर थे केवल
तुम से लगी लगन के पहले । जैसे पत्थर भर होती है
हर प्रतिमा पूजन के पहले ॥
कोकिल जितना घायल होता, उतनी अधिक कुहुक देता है । जितना धुंधुवाता है चंदन, उतनी अधिक महक देता है |
मैं तो केवल तन ही तन था, मुझ में जागे मन के पहले । जैसे कांच कांच रहता है, कांच सदा दर्पण के पहले ॥
मुझ में संभावना नहीं थी,
दर्दों के दोहन के पहले । जैसे बांस बांस रहता है, बस सदा बंशी के पहले ॥
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कर्मयोग का आह्वान | 33
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