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जिंदों में अगर जीना है तुझे, तूफ़ान की हलचल रहने दे धारे के मुआफिक बहना क्या, तौहीने दस्तो-बाजू है । परवर्द -ए तूफ़ाँ किश्ती को,
धार के मुखालिफ बहने दे । किश्ती को भंवर में घिरने दे ।
अगर तुम्हें जिंदों के बीच रहना है, तो तूफ़ानों से घबराओ मत । धारा के साथ बह मत जाओ, बहना तो मुर्दापन है । बहना है, तो धारा के विपरीत बहो और कर्मयोग को सार्थक करो। ऐसा प्रयास हो कि कर्मयोग तुम्हारा प्राण, श्वास-प्रश्वास बन जाये । कर्मयोग तुम्हारा विश्वास हो जाये । तुम्हारा पहला लक्ष्य तो कर्म होना चाहिये। कुछ करोगे, तो ही फल हाथ लगेगा । निठल्ला भला क्या पा सकेगा ? जो आदमी चलेगा वह ठोकर भी खायेगा, जो बोलेगा वह गलती भी करेगा । गूंगा क्या कर पायेगा ?
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यदि एक शेर गुफा में जाकर बैठ जाए और सोचे कि उसका भोजन अपने आप ही उसके मुँह में पहुँच जायेगा, तो ऐसा होने वाला है नहीं । कर्म तो करना ही पड़ेगा । श्रमविमुख मनुष्य और कर्मविमुख समाज का भविष्य कभी स्वर्णिम नहीं हो सकता ।
गीता के तीसरे अध्याय का सूत्र
है :
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सर्वाणि कर्माणि, संन्यस्याध्यात्म - चेतसा । निराशी- निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥
मुझ परमात्मा को अपने सारे कर्म समर्पित कर आशा रहित, ममता रहित और संताप रहित होकर तू अपने आपको युद्ध में प्रवृत्त कर ।
कर्म के स्वरूप का विश्लेषण करते हुए गीता इसे दो भागों में बाँटती है । एक तो मानसिक कर्म और दूसरा बाहरी कर्म । कर्म का त्याग सदाचार का विधान नहीं है, बल्कि कर्मफल की ओर से उदासीनता है । गीता वासनाओं का उच्छेदन नहीं कराती, बल्कि उन्हें पवित्र करने का आदेश देती है। तय है कि गीता निष्क्रिय स्वतंत्रता को न तो स्वतंत्रता मानती है, न ही मोक्ष की प्राप्ति का साधन । गीता मानती है कि शरीरधारी जीव नितांत रूप से कभी भी कर्म का त्याग नहीं कर
32 | जागो मेरे पार्थ
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