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________________ सूरज, चांद, सितारे भी लगातार कर्मयोग में मशगूल हैं । जानवर और पक्षी-पंखेरू भी अपने जीवन की व्यवस्थाओं के लिए कर्म करते हैं, फिर मनुष्य ही पीछे क्यों रहे । हमें भारत को स्वर्ग बनाना चाहिये और यह स्वर्ग बंद कमरों में बैठने से नहीं होगा। हमें आगे आना होगा। 'चरैवेति-चरैवेति' के सूत्र को अपनाना होगा। प्रमाद को त्यागना होगा। कलयुग के मुर्दापन को भगाना होगा; द्वापर और त्रेता के भाव को जगाना होगा। कृष्ण के हाथ में सुदर्शन है । सुदर्शन चक्र स्वयं कर्मयोग का परिचायक है । बढ़ते अपराधों के कारण शिशुपाल पर सुदर्शन चक्र चलाना और बेइज्जत होती द्रोपदी का चीर बढ़ाना-दोनों ही कर्म हैं । चक्र के मायने हैं जो चलता रहे वह चक्र । सुदर्शन-चक्र जैसे कर्मयोग की प्रेरणा दे रहा है, ऐसा ही हमारे यहाँ का मंगल चिह्न 'स्वस्तिक' भी सारी मानवता को कर्मयोग की प्रेरणा दे रहा है। स्वस्तिक की चार रेखाएँ और उन चार रेखाओं से निकलती और चार रेखाएँ मनुष्य को हर दिशा और हर दशा में श्रम और कर्म की सीख देती हैं। बूढ़े और बच्चे में फर्क क्या है । बूढ़े और बच्चे में मूल फर्क है कि बच्चे नहीं जानते और बूढ़े जानते हैं । बच्चे का न जानना सच है । बूढ़े का जानना झूठ है। बचपन में स्मृति नहीं है । बचपन ऐसा ही है जैसे छोटी हिलती हुई पत्ती । बच्चों के लिए जगत बहुत रंगों से भरा हुआ है । बहुत गीत हैं, बहुत ध्वनि से भरा हुआ मालूम पड़ता है। धूप स्वर्णिम लगती है, चाँदनी चाँदी जैसी । बचपन में विस्मय की आँख है। बुढ़ापे में जानने का दंभ है । जगत् से संबंध टूटते हैं, तो बुढ़ापा है । जगत से सम्बन्ध बनते हैं तो बचपन है । कृष्ण का कर्म बचपन की जिज्ञासा है, बचपन का विस्मय है, बचपन का रंग है । कर्म की फलश्रुति को जीतकर ही कर्मयोग को समझा जा सकता है। कहते हैं यूनान में किसी वजीर को एक सम्राट ने फाँसी दे दी । सुबह तक सब ठीक-ठाक था, दोपहर वजीर के घर सिपाही आये। उन्होंने वजीर के मकान को चारों ओर से घेर लिया। वजीर को खबर की गई कि शाम को उसे फाँसी दे दी जायेगी । वजीर के घर उसके मित्र आये थे। एक बड़े भोज का आयोजन था। कहानी कहती है कि वह वजीर का जन्म-दिन था । संगीत भी था, वीणा बज रही थी। लोग नाच रहे थे। राजा के हरकारे के पहुँचने पर वीणा बन्द हो गई, नाच रुक गया, दोस्त उदास हो गये। पत्नी और घर की महिलाएँ रोने लगीं। वजीर 28 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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