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दे रहा है, तो हम हाशिये पर क्यों है ? किनारे पर खड़े होकर लहरों को गिनने से कुछ भी संभव नहीं है । तुम्हारे साहस की परीक्षा तो तभी होगी, जब तुम धारा के विपरीत चल पाने का साहस जुटा पाओ, तुम तूफ़ानों को भी बाँध पाने की क्षमता
अपने में उत्पन्न कर पाओ । जो श्रम से मुंह मोड़ते हैं, उनकी शक्ति मात्र छलावा है । तुम इन छलावों से बचो, अपने जीवन में श्रम का, कर्मयोग का मूल्य स्वीकार करो।
कृष्ण तो स्वयं ही कर्मयोग के प्रतीक हैं । कर्म उनकी भाषा है, कर्म ही उनकी आत्मा है। कर्म है तो कृष्ण है, कर्म नहीं तो कृष्ण, कृष्ण नहीं । युद्ध उनके कर्मयोग का एक चरण है । वे केवल युद्ध की प्रेरणा देते हैं, ऐसा नहीं है। उनकी पहली प्रेरणा तो शान्ति को ही बरकरार रखना है । युद्ध कभी शान्ति का धाम नहीं हो सकता है । युद्ध तो मजबूरी है । कृष्ण ने पहले तो यही पहल की थी युद्ध टल जाये, पांडवों को पांच ही गांव मिल जायें । युद्ध तो तब अनिवार्य हुआ, जब उन्हें यह कहा गया कि शान्ति की बात करने वालों को यहाँ भीख मांगते शर्म नहीं आती। पांडवों को हमसे जमीन मांगने का कोई हक नहीं है। उन्हें एक इंच भी जमीन नहीं मिलेगी। कौरवों को अपने राज्य का, अपनी जमीन का इतना दंभ ! किसका साम्राज्य सदा रहा है ? करोड़पति को रोड़पति होने में कोई लम्बे फासले तय नहीं करने पड़ते। किसका गुरूर यहां बना रहा है-सबै भूमि गोपाल की। इस राष्ट्र की माटी सबके लिये है और अपनी मातृभूमि पर रहने का सबको हक है । अगर भाई अपने ही भाइयों के प्रति वैर-विरोध करे, तो मनुष्य का धर्म निठल्ले बैठे रहने को नहीं कहता, उसे निष्क्रिय-अकर्मण्य बने रहने को नहीं कहता।
कृष्ण तो क्या, कोई भी समझदार आदमी युद्ध नहीं चाहेगा, महाभारत को तो मजबूरी का महात्मा समझो । कृष्ण युद्ध के प्रेरक नहीं, वरन् शान्ति के दूत हैं । कृष्ण का रणछोड़ नाम इसीलिए तो पड़ा। कोई अगर यह कहे कि कृष्ण मैदान छोड़कर भाग गये, तो कृष्ण को यह कलंक भी मंजूर है परन्तु राज्य में, राष्ट्र में शान्ति स्थापित होनी चाहिये । कृष्ण को तो अपनी द्वारिका बसाने के लिये जगह मिल गई थी, परन्तु पांडवों को तो वह भी न मिली । अगर जंगल भी मिल जाता, तो भी कृष्ण पांडवों को श्रम की प्रेरणा देकर एक बार दबारा इन्द्रप्रस्थ बसा लेते, किन्तु पुत्र-मोह में अंधे धृतराष्ट्र को कृष्ण और विदुर कांटे ही लगे।
मनुष्य को श्रम और कर्मयोग अनिवार्यतः करना चाहिये । मनुष्य ही क्यों
कर्मयोग का आह्वान | 27
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