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भगवान पार्श्वनाथ के जीवन की घटना कहती है कि उन्होंने आग में जलते नाग - युगल को आग से बाहर निकालकर धर्म की पुण्यमयी शरण प्रदान की, नतीजतन वह नाग-युगल धरणेन्द्र और पद्मावती के रूप में देवयुगल हुआ। ऐसे ही आप रास्ते से गुजरते हुए किसी घायल, मरणासन्न कबूतर को देखते हैं और उसे धर्म के दो शब्द सुना देते हैं, तो आपने धरणेन्द्र और पद्मावती होने का पुण्य कमा लिया। आपने कोई दान नहीं दिया, कोई मंदिर नहीं गये, फिर भी देवत्व को उपलब्ध हो गये 1
अगर आपकी अपनी कोई आत्मा है, तो अपने इर्द-गिर्द कराहते लोगों, पीड़ा से संत्रस्त मानवता की सेवा के पुण्य कार्य के लिए आगे आओ। अगर तुम मन्दिर में बालकृष्ण की मूर्ति को माखन मिश्री चढ़ाते हो और घर आकर अपने बच्चे के गाल पर चांटा लगाते हो, तो यह कैसी आराधना हुई ? मन्दिर में बालकृष्ण की मूर्ति को माखन-मिश्री चढ़ाते हो, तो यह तो रोज़ का अभ्यास है I असली पूजा तो तब होगी, जब तुम घर जाकर अपने बच्चे के ही नहीं, अपने पड़ोसी के बच्चे के आंसू पोंछ पाओ ।
स्वयं को स्वार्थ के शकुनि से मुक्त करो। जीवन हमारे लिए एक महान् पुरस्कार है। इसकी केवल इन्द्रिय-सुख में ही इतिश्री मत करो । इन्द्रियों के सा विषय अनित्य हैं । पहले, ये सुख भले ही सुख-रूप में लगते हैं, लेकिन अंततः तो वे दुःखमूलक ही हैं। ठीक ऐसे ही, जैसे कोई कुत्ता हड्डी चबाता है, तो उसे चबाते समय खून भी मिलता है, मांस भी मिलता है। कुत्ता भले ही अपने आनन्द के लिये वह चबाता है, लेकिन यह उसकी मूढ़ता है । हड्डी में क्या मांस या खून होता है ? वह मांस और खून तो स्वयं उसी के गाल से आता है और वह सोचता है कि क्या मजा आ रहा है। कुत्ता तो कुत्ता है । वह तो जानवर है, अबोध है, लेकिन हम तो समझ रखते हैं ।
क्रोध की तरंग उठी और क्रोध कर बैठे, विकार की लहर उठी और विकार पूर्ति का साधन जुटाने बैठ गये । इधर कोई कामना उठी और उधर उसकी पूर्ति का इंतजाम करने लगे। इतनी लंबी उम्र गुजारने के बाद भी मैं नहीं जानता कि आदमी जगा हुआ है, सचेतन, प्राणवंत और आत्मवान है । आदमी की स्थिति दयनीय हो चुकी है । एक साठ वर्ष का व्यक्ति भी शायद यह नहीं कर पायेगा कि वह अब ब्रह्मचर्य व्रत का अमल कर रहा हो । दिन भर खाते रहने पर भी वह
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चुनौती का सामना | 19
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