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________________ जल्दी हो सके अपनी देह, अपने जीवन से देश निकाला दिलवा दो। इसमें नपुंसकता नहीं आनी चाहिये, पलभर का प्रमाद भी तुम्हारे लिए भारी पड़ सकता है ___ यह मत सोचिएगा कि ऐसा करके आप किसी आत्मा को नष्ट कर डालेंगे। आत्मा कभी नष्ट होती ही नहीं है । आत्मा तो अनश्वर है । कोई यह न सोचे कि कृष्ण अर्जुन को इसलिये प्रेरणा दे रहे हैं, ताकि वह राजसुख भोग सके। कृष्ण तो गीता में स्पष्टतः कह देते हैं कि इन्द्रियों के विषय और उन विषयों के सुख पूरी तरह अशाश्वत, दुःख-बहुल और अनित्य हैं। इनके प्रति तो तुम्हें तितिक्षा ही रखनी होगी। यह तो केवल अधिकारों को प्राप्त करने का संग्राम है, ऐश्वर्य या सुख-भोग प्राप्ति का संग्राम नहीं है। यह धर्म का विनाश करने वालों के प्रति, अधर्म का साथ देने वालों के प्रति संघर्ष का शंखनाद है। अगर कौरव पांडवों को पांच गांव भी दे देते, तो शायद युद्ध की नौबत नहीं आती। श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि तुम्हारी यह सोच निर्मूल है कि इस युद्ध में मारे जाने वाले लोग जीवित हैं । इन सबकी आत्माएँ तो मर चुकी हैं । जिस आदमी की नैतिकता मर गई, उसकी आत्मा कभी जीवित नहीं कहला सकती। अगर हमारे हृदय से प्रेम, शान्ति, करुणा की मृत्यु हो चुकी है, तो तुम्हारा अपनी रूह से कोई रिश्ता नहीं रहा है। ये सब तो मृत हैं, जिन्हें मारने, न मारने से कुछ भी अन्तर आने वाला नहीं है । इनको मारने के लिये तो स्वयं भगवान ने अवतार ले लिया है, अपने भीतर के क्रोध, कषाय, बुराइयों, असत् विचारों को हटाने के लिए तो स्वयं तुम्हारे भीतर की आत्मा जग पड़ी है। अपनी अन्तर आत्मा की आवाज़ सुनो । उस अन्तर्आत्मा की आवाज़, जिसमें ईश्वरत्व की शक्ति सोई हुई है । अपने भीतर के देवता की आवाज़ पर कान टेरो। अगर आपके सामने किसी भी बहिन के साथ दुर्व्यवहार हो रहा है, किसी का घर जलाया जा रहा है और अगर आप चुपचाप खड़े देख रहे हैं, तो मैं नहीं जानता कि आपकी कोई आत्मा होगी। अगर रास्ते से गुजर रहे हो और रास्ते में देखते हो कि एक दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति खून से लथपथ पड़ा कराह रहा है और आप अपनी कार को धुआंधार गति से चलाते हुए उसके पास से गुजर जाते हो । उस समय अगर करुणा से अभिभूत होकर आप अपनी कार को नहीं रोकते हैं तो आप जीवित इंसान नहीं कहला सकते । तब आप चलती-फिरती लाश होंगे। 18 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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