SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नेस्तनाबूद हो जायेगा। सिंहत्व की गर्जना चाहिये, सिंहत्व का ओज चाहिये। इस धरती पर अधर्म का साम्राज्य निरन्तर फैल रहा है । ऐसे में कृष्ण चाहे धरती पर जन्म लें या न लें, मगर मैं आह्वान करूंगा आप सब लोगों का कि हर मनुष्य अपने आप में श्रीकृष्ण बने, इस धरती के कायाकल्प के लिये अपने आपको बलिदान करे । वसुंधरा की यह पावन माटी एक-एक इन्सान से पुकार कर रही है, अपने ही उद्धार के लिए । इस माटी को अपने खून-पसीने से सींचो और इसे सोने के रूप में परिणित कर दो । गीता तुम्हारे लिए पारसमणि साबित हो सकती है, बशर्ते आप में लोहे पर जमी जंग को उतारने की हिम्मत हो । तुम अगर जंग उतारने के लिए तैयार नहीं हो, तो जीवन की जंग पूरी नहीं हो पायेगी । तुम्हें अपनी दुर्बलता को त्यागना होगा, जगाना होगा अपने सिंहत्व को। __एक बार भरत और बाहुबली के बीच संग्राम की नौबत आई । सम्राट भरत ने विश्व-विजय पूरी कर ली थी, चक्रवर्ती बन चुके थे, मगर एक व्यक्ति अविजित रहा । वह उन्हीं का अपना छोटा भाई बाहुबली था। सम्राट भरत ने अपने छोटे भाई से अपने राज्य को चक्रवर्ती के चरणों में समर्पित करने की सलाह भिजवाई। बाहुबली ने प्रत्युत्तर दिया-भरत अगर भाई के रूप में मेरा राज्य लेना चाहे, तो मैं एक बार नहीं सौ बार अपना राज्य समर्पित करूंगा, पर अगर वह एक सम्राट के रूप में मुझसे राज्य लेना चाहे, तो एक इंच भी जमीन उसे नहीं मिलेगी। तब अपनी-अपनी स्वतंत्रताओं की रक्षा के लिए दो भाइयों के बीच संग्राम हुआ। भले ही यह युद्ध हिंसा का युद्ध कहलाये, पर अपने अधिकारों के लिए लड़ना, अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करना हर मानव का अपना नैतिक दायित्व है । क्षत्रिय के लिए ऐसा करना कभी पाप नहीं कहलायेगा। ___ अगर अर्जुन यह कहता है कि मैं अपने स्वजन-समुदाय को मारकर अपना कल्याण नहीं देखता, तो अर्जुन भूल कर रहा है । कौन तुम्हारा स्वजन, कौन परजन ! जो तुम्हारे अधिकारों पर आघात करे, उसे तुम कैसे अपना स्वजन कह सकते हो । अहिंसा का अर्थ केवल इतना ही नहीं है कि कोई तुम्हें पीड़ा न दे और किसी को पीड़ा न पहुँचाओ। अहिंसा का विस्तार तो यह है कि न केवल वह तुम्हें पीड़ा न पहुँचाये, वरन् तुम्हारे अधिकारों की प्राप्ति में भी तम्हारा मददगार बने । अधिकार चाहे अपने हों या पराये, उनकी रक्षा की जानी चाहिये। 16 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy