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________________ गीता का सारा आभामंडल इसी सूत्र पर केन्द्रित है । श्रीकृष्ण ललकारते हुए कहते क्लैव्यं मा स्म गमः पार्थ, नैतत्त्वय्युपपद्यते। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं, त्यक्त्वोत्तिष्ठं परंतप ॥ हे अर्जुन ! तू, और नपुंसकता को प्राप्त हो रहा है ! यह तुझे उचित जान नहीं पड़ता । हे परमतपस्वी ! तू हृदय की तुच्छ दुर्बलता का त्यागकर । उठ और लक्ष्य के प्रति सन्नद्ध हो जा। _ 'क्लैव्यं मा स्म गमः' युद्ध न करना धर्म की बात नहीं है पार्थ । कुंती का बेटा होने से अर्जुन का एक नाम पार्थ भी है । कृष्ण कहते हैं कि इस नपुंसकता को तुम छोड़ दो। “नैतत्त्वय्युपपद्यते” तुम कुंती जैसी वीर क्षत्राणी के बेटे हो, स्वयं भी वीर हो इसलिए प्रकृति से भी तुम में यह नपुंसकता स्वयं में अनुचित है। 'परंतप' का अर्थ होता हे शत्रुओं को तपाने वाला । क्या तुम इस युद्ध से भागकर शत्रुओं को प्रसन्न करोगे? 'क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं' यहाँ 'क्षुद्र' शब्द के दो अर्थ हैं । एक यदि तुम इस तुच्छता को नहीं छोड़ेगे तो स्वयं तुच्छ हो जाओगे । दूसरा, हृदय की दुर्बलता तुम जैसे शूरवीरों के लिए छोड़ना कठिन काम नहीं है। यह सन्देश न केवल अर्जुन को, वरन् पूरी मानव जाति को दिया गया सन्देश है, जो मानव जाति अपने हृदय की तुच्छ दुर्बलता की वशीभूत बनी हुई है। हर मनुष्य के भीतर अपनी एक महान् दुर्बलता है। हर आदमी चाहे जितने संकल्प ले ले, साहस की बातें कर ले, पर उसकी एक दुर्बलता उसे फिर पीछे धकेल देती है । वह इंसान ही क्या, जिसके हृदय में अपना कोई स्वाभिमान नहीं, अपना कोई संकल्प नहीं, अपने संकल्प को क्रियान्वित करने का पुरुषार्थ नहीं। युद्ध चाहे बाहर का हो या अपने अन्तर्-जगत का, महावीरत्व चाहिये। एक ऐसा महावीरत्व कि हज़ार-हज़ार तीरों का मुकाबला करते हुए भी व्यक्ति अपने कर्तव्य-मार्ग पर अडिग रहे, अटल रहे । जिस मार्ग पर तुमने अपने कदम बढ़ा दिये हैं, उस मार्ग से फिर पीछे हट जाओ, तो यह तुम्हारी ओर से पलायनवादिता है, भगोड़ापन और नपुंसकता है। तुम्हें तो अपने सिंहत्व को जगाना चाहिए। जब तक एक शेर भेड़ों के बीच में रहेगा, वह भी मिमियाता रहेगा। जिस दिन अपने सिंहत्व को जगा बैठे, उस दिन सारी भेड़ों का अस्तित्व चुनौती का सामना | 15 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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