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________________ सके कि उसे फुर्सत है । बिल्कुल निठल्ला पड़ा आदमी भी यही कहेगा-क्या करें जनाब, बहुत व्यस्त हैं । यहाँ जाना- वहाँ जाना, इसको संभालना - उसको संभालना, यह काम-वह काम । काम कुछ भी नहीं, फिर भी व्यस्त कहने की आदत पड़ चुकी है । अगर समाज का अभ्युत्थान करना है, मानवता को कीर्ति के कलश प्रदान करने हैं, तो निश्चित तौर पर मानव को सुबह उठते ही श्रम और सृजन में लग जाना चाहिये । सृजन के गीत गाओ, धरती को स्वर्ग बनाने की कोशिश करो । हमारे अपने श्रम से ही घर और हमारा समाज सुधरेगा । जब सुबह उठते ही पंखेरू भी श्रम में लग जाते हैं, तब हम ही हाशिये पर क्यों हैं? हम न खेलकूद में पूरी तरक्की कर पाये हैं और न ही व्यवसाय में ही । धर्म और अध्यात्म में भी हम पिछड़े हुए हैं । हमारे प्रयासों में ही कहीं-न-कहीं कमी है । कुनकुना पानी कभी भाप नहीं बनता । पानी को भाप में तब्दील करना है, तो उसे खौलाना होगा, उसे निश्चित तापमान तक गर्म करना होगा। तभी पानी भाप बन पायेगा, प्रयासों को पूर्णता मिल पायेगी । हमारे जीवन के लोहे को जंग लग चुकी है। यह जंग उतर जाये, इसके लिए कृष्ण हम सब लोगों को जंग का आह्वान कर रहे हैं। कर्म और श्रम से जुड़ना अपने समाज के स्वर्णिम भविष्य के साथ जुड़ना है, राष्ट्र के अभ्युत्थान से जुड़ना है । अगर हर व्यक्ति अपने कल्याण के लिए और अपने अभ्युत्थान के लिए कृत-संकल्प हो जाये, तो आने वाले चंद साल ही भारत को स्वर्ग बनाने के लिए काफ़ी होंगे । कृष्ण का आह्वान केवल अर्जुनों के लिए नहीं है, वरन् सारी मानवता के लिए है । उस मानवता के लिए, जो अकर्मण्य हो रही है, जो निरन्तर पीछे खिसक रही है, जो सुस्त और प्रमादग्रस्त है । कृष्ण उद्बोधन दे रहे हैं अर्जुन को कि अर्जुन, तेरे जैसा प्रतापी, महायोद्धा, महाक्षत्रिय भी अगर यूं कायर हो गया, यूं नपुंसक और कमज़ोर हो गया, तो अधर्म के नाम पर पनपने वाले ये सारे दुर्योधन, ये दुःशासन, ये शकुनि तुझे और तेरी पीढ़ियों को शांति से जीने नहीं देंगे । आज तेरे पास क्षमता है और आज तेरे पास स्वयं मैं उपस्थित हूँ । अगर मेरी उपस्थिति का तुमने लाभ न उठाया और कमज़ोर हृदय बन गया, तो स्वार्थ के ये शकुनि न केवल तुम्हारे हस्तिनापुर को उजाड़ देंगे, वरन् सारे संसार के नक्शे पर खरोंच की रेखाएँ भी खींच डालेंगे। याद रख, इन सबका गुनहगार, इन सबका जिम्मेदार तू होगा। इन दुष्चक्रों के दुःशासनों, दुष्प्रवृत्तियों के दुर्योधनों और स्वार्थ के 1 212 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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