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________________ बने हैं। हम भगवान श्रीकृष्ण के शुक्रगुजार हैं जिन्होंने मानवता को इतने महान् संदेश दिये और एक अकर्मण्य और निठल्ले हो रहे इंसान को फिर से एक कर्मयोगी होकर संसार में जीने का पूरा हक और ऊर्जा दी । गीता के इन अठारह अध्यायों का अग़र हम सार निकालना चाहें, तो कोई बहुत लंबे-चौड़े सूत्र नहीं निकलेंगे। दो-चार सार-सूत्रों में ही गीता को समेटा जा सकता है । विस्तार से तो इसलिए कहना पड़ा, क्योंकि आपके हृदय में बैठा हुआ अर्जुन कायरता की कितनी सीमा लांघ चुका है, न जाने कितना नपुंसक हो चुका है । कृष्ण को युद्ध के मैदान में अर्जन को महान उदबोधन ही नहीं देना पड़ा, वरन अपने वास्तविक और विराट स्वरूप को दिखाकर अपने कथ्य के प्रति आत्मविश्वास भी जगाना पड़ा। गीता के संदेशों को बहुत सार-संक्षेप में कहना हो, तो उपसंहार के रूप में यह कहूंगा कि गीता का सबसे बड़ा संदेश यह है कि व्यक्ति कर्मयोगी बने, श्रमशील । ऐसा नहीं है कि अकर्मण्यता और निठल्लापन कृष्ण को पसंद नहीं है, वरन् ये अवगुण तो मनुष्य और मनुष्य-समाज के लिए अभिशाप हैं । वह समाज और वह राष्ट्र कभी उन्नति नहीं कर सकता, जिसमें अकर्मण्यता की दीमक और निठल्लेपन की घुन लग चुकी है। अगर मनुष्य ने कर्मयोग से अपना मुँह फेर लिया, तो कभी सोने की चिड़िया कहलाने वाले इस भारत देश में मिट्टी की चिड़ियाएँ भी शायद ही मिलें । उस समाज और राष्ट्र को गर्त में जाने से कोई नहीं रोक सकता, जिस समाज ने श्रम और कर्म से जी चुराया है। नागासाकी और हिरोशिमा नगरों को ध्वस्त हुए आज अर्द्ध शताब्दी बीती है। आज वे नगर फिर से पहले की तरह आबाद हैं और उन पर अपने राष्ट्रों का गौरव लहलहा रहा है। जिस जर्मनी को ध्वस्त हए इतने वर्ष बीत गये, आज वही जर्मनी संसार के देशों की अग्रिम पंक्ति में आता है । एकमात्र हिन्दुस्तान ही पीछे क्यों है ? यह राष्ट्र औरों से कर्ज़ ले-लेकर गुज़ारा क्यों कर रहा है ? इसका कारण यही है कि यहाँ के आदमी ने सृजन की नींव लगाने के बजाय ताशों के महल खड़े किये हैं और उन पर अंताक्षरियों के कंगूरे निर्मित किये हैं। केवल गप्पें हाँक-हाँककर अपने समाज का शिलान्यास किया है। हर आदमी के पास बे-हिसाब समय पड़ा है, मगर कोई भी आदमी ऐसा नहीं मिलेगा, जो यह कह बूंद चले सागर की ओर | 211 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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