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________________ नहीं होगा। तुम स्वयं शांत न हो पाये, इसीलिए किसी और का क्रोध कारगर होता है । अगर तालाब में जलते हुए अंगारे फैंकोगे, तो तालाब का कुछ नहीं होगा, अंगारे ही बुझ जायेंगे । तुम सरोवर न बन पाये, इसलिए तुम्हें क्रोध आता है। अपने में शीतलता भर अगर तुम पानी हो जाओ, तो सामने वाले को भी पानी-पानी होना ही पड़ेगा। क्रोध से परहेज रखो, अपने जीवन को प्रेम से आपूरित होने दो । संयम रखो, मिजाज ठंडा रखो । नरक का द्वार तुम पार लग ही गये । नरक का तीसरा दरवाजा है-लोभ । यह नरक का अंतिम दरवाजा है, मगर सबसे ज्यादा भंयकर, फिसलन भरा । यह ऐसा दरवाजा है कि व्यक्ति न चाहते हुए भी वहाँ जाकर उलझ जाता है । लोभ के मायने हैं-मन की वो स्थिति जो लुभा ही जाती है, जो आदमी को खींच ही लेती है, बांध ही लेती है । लोभी बड़ा कंजूस होता है । क्रोधी प्रेम से वंचित होता है और लोभी प्रेम और करुणा से । क्योंकि प्रेम में तो लिया नहीं जाता, वरन् दिया ही जाता है, लुटाया ही जाता है । लोभी आदमी कभी लुटा नहीं सकता। वह तो देने का नाम ही नहीं जानता है । उसे तो चाहिये । उसे तो कुछ और चाहिये, कहीं और चाहिये, कोई और चाहिये । जो मिला है, उसमें वह संतुष्ट नहीं होता, तृप्त नहीं होता। उसे पेट की चिंता नहीं, 'पेटी' की चिंता है, तिजोरियाँ भरने की चिंता है । बड़ी बीमार हालत होती है लोभियों की। लोभ मन का कब्ज़ है । कब्ज़ का काम है मल को पेट में एक जगह इकट्ठा रखना और जो लोभी आदमी होते हैं, वे भी दुनिया भर के कबाड़े को अपने तहखाने में इकट्ठा करते हैं । वे यह सोचते हैं कि संग्रह आज नहीं तो कल काम आयेगा। लोगों के घर में जाकर देखो, वहाँ काम की चीजें तो कम मिलेंगी और बेकार की चीजें भरी पड़ी हैं । जिन चीजों का साल में एक बार भी उपयोग नहीं होता, उन चीजों को रखकर तुम परिग्रही क्यों बनते हो? जो वस्तुएँ आपके लिए मूल्यवान होती हैं, वे ही वस्तुएँ राजकुमारों के लिए नाकारा होती हैं। तभी तो महावीर पैदा होता है, तभी तो बुद्ध जन्म लेता है और तभी संन्यास जीवन में घटित होता है। उनके पास सब कुछ था, मगर जाना तो यह जाना कि कुछ भी नहीं है । जिन चीज़ों के लिए आप अपनी ज़िंदगी को कुर्बान कर रहे हैं, चाहे वह धन-दौलत हो या ज़मीन-जायदाद, कोई भी आपको दो पल की शांति और तृप्ति नहीं दे सकते । तब जिनको आप बटोर रहे हैं, उनको महावीर या बुद्ध जैसे लोग ठुकराकर आगे बढ़ जाते हैं कुछ पाने के लिए, सब कुछ पाने देवत्व की दिशा में दो कदम | 199 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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