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________________ के लिए। तुम महल बनाते हो, महावीर राजमहलों का त्याग कर जाते हैं । तुम पत्नी में उलझे हो, बुद्ध पत्नी को छोड़ जाते हैं। तुम पैसे और दुकान में मोहित हो, बाहुबली चक्रवर्ती का साम्राज्य ठुकराकर निर्वाण के पथिक हो जाते हैं । मनुष्य उलझा है, मोह-माया के मकड़जाल में फंसा है । त्याग की चेतना विकृत हो गई है, लोभ की चेतना प्रगाढ़ हो गई है। लोभ मन का कब्ज है और त्याग लोभ को काटने का तरीका है। अगर आप अपने लोभी मन को ज्यादा न काट पाये, तो कम-से-कम इतना तो कर ही सकते हैं कि जिन चीजों की घर में जरूरत नहीं है, उन्हें अपने घर से निकाल फैंकें । जो आदमी अपने घर को कबाड़खाना बनाये रखता है, उसके घर में दारिद्र्य ही इकट्ठा होता है । अगर दारिद्र्य को संजोकर रखना चाहो, तो बात अलग है । फालतू चीज़ों को उन लोगों को दे दो, जिनको इनकी ज़रूरत है। अगर घर में बीस बोतलें पड़ी हैं, तो उन्हें कल ही बेच डालो और जो पैसे आयें, उससे गीता-भवन में कबूतरों के लिए दाना डलवा दो। ऐसा करके आपने कोई दान नहीं किया है, परिग्रह को हटाया है। इस तरह परिग्रह को हटाना आपके लिए जहाँ एक धर्म-कार्य साबित हो सकता है, वहीं घर की सफाई के काम को भी अंजाम देना होगा। तो ये तीन दरवाजे हैं नरक के । ये ही वे तीन द्वार हैं, जो मनुष्य को संसार से बांधे रखते हैं । इन तीनों दरवाज़ों पर होने वाली जो गुणात्मक स्थिति है, उसी को कृष्ण कहते हैं-आसुरी प्रकृति, आसुरी संपदा, आसुरी गुण । भगवान करे कि हम स्वर्गीय हों, इससे पहले ही अपना स्वर्ग इस धरती पर बना लें, आत्मा में जन्नत को ईज़ाद कर लें। अपने जीवन में इंद्रराज देवेन्द्र होकर जीयें, तो शायद जीवन को जीना स्वर्ग को जीने के समान होगा। जो स्वर्ग को जीता है, उसका जीना तो सार्थक है, नरक में तो हर आदमी पड़ा है । मुझे नरक के बारे में कुछ नहीं कहना। नरक से तो सिर्फ बचने की बात कर रहा हूँ । उसके कीचड़ से बचने की बात कह रहा हूँ । नरक के द्वारों से बचो और दिव्य जीवन के द्वारों को उद्घाटित करो। देवत्व की दिशा में हमारे कदम उठे । जीवन पुण्य का पुष्प बने । आज इतना ही निवेदन कर रहा हूँ : हे कमल, ऊपर उठो ! ऊपर खिलो ! ! आकाश भर आनंद लो। 200 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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