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________________ ठकवा पायेगा, यह संभावना ही प्रतीत नहीं होती और न ही यह संभावना झलकती है कि उसके जीवन में जीसस की तरह सलीब पर लटकने का सौभाग्य आयेगा। यात्रा कहीं-न-कहीं से तो शुरू करनी ही होगी। दो कड़वे शब्दों से ही सही, हम अपनी यात्रा का आग़ाज़ करें । इसे हम जीवन का अनुष्ठान समझें। अगर किसी ने क्रोध में आकर तुम्हें कुछ कह दिया है, तो तुम्हें क्रोध करने की आवश्यकता नहीं है । तुम मिठास से अपनी बात कहो । कभी कहना जरूरी होता है तो कभी सहना । अवसर पर बोलना जरूरी है, तो अवसर पर मौन रहना भी जरूरी है। यह विवेक आप पर है कि कहाँ बोलें और कहाँ मौन रहें । क्रोध का वातावरण बन जाये, कोई गाली दे भी बैठे तो तुम यह सोचो कि कौन-सा यह व्यक्ति हजार साल जीयेगा और कौन-सा मैं हजार वर्ष जीऊंगा। ठीक है कह दिया, सो कह दिया । अगर बहू के द्वारा मामूली-सी गलती हो जाये,तो सास-ससुर उसे बुरी तरह डांटते हैं और तब संबंधों में तनाव बढ़ता है। ये संबंध प्रभावित ही न हों, अगर सास-ससुर यह समझ लें कि वे घर में रहते हुए भी घर में नहीं हैं। यह मानना संसार में रहते हुए भी संन्यास को जीने की प्रक्रिया हई। मझे याद है कि एक संत किसी राह से गजर रहे थे । इतने में ही देखा कि पीछे से एक युवक आया, हाथ में लाठी लिये हुए और उसने संत को कमर पर एक लाठी जमा ही दी । लाठी के प्रहार के बाद युवक भयभीत हुआ, इसलिए लाठी उसके हाथ से अलग छिटक गई और वह भागने लगा। संत ने पीछे से आवाज़ दी–भैय्या, दौड़ क्यों रहे हो? जाना ही है, तो चले जाओ, मगर इस लाठी को तो लेते जाओ। संत के साथ दूसरा आदमी चल रहा था। उसने संत से कहा कि यह तो हद ही हो गई । एक तो आदमी ने लाठी मारी और ऊपर से आप कह रहे हैं कि लाठी को वापस लेता जा। आपको क्रोध नहीं आया? संत अपने हमराही की बात सुनकर मुस्कुरा दिये। संत ने कहा-यह समझ-समझ का फ़र्क है । तुम मुझे एक बात का जवाब दो । मान लो मैं इस रास्ते से गुजर रहा हूँ और जिस पेड़ के नीचे मैं खड़ा हूँ, उस पेड़ से एक टहनी मेरे कंधे पर आकर गिर पड़े, तो क्या मैं इस पेड़ को गालियाँ दूँगा? क्या मैं इस पेड़ पर लाठी मारूंगा? पेड़ के नीचे से गुजरना और लाठी का गिरना यह तो संयोग है । संत की तरह क्यों न हम भी लोगों के द्वारा किया जाने वाले निकृष्ट व्यवहार और बर्ताव को एक संयोग ही समझें । संयोग मान लेते हो तो क्रोध नहीं आयेगा और आयेगा भी तो तुम पार लग जाओगे। तब कोई भी शब्द तुम पर प्रभावी 198 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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