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________________ साथ अपनी राधा को एक संदेश भेजते हैं। संदेश में वे कहलवाते हैं कि कृष्ण द्वारिका की ओर जा रहे हैं । अब वे वापस कब लौटेंगे, पता नहीं, इसलिए मन में धैर्य रखें । उद्धव अपने आपको बहुत आत्मज्ञानी और ब्रह्मज्ञानी समझता था। उसने आते ही राधा से कहा कि यह मोह-माया बड़ी नश्वर है । यह प्रेम और राग का संबंध क्या रखना । कृष्ण तो ब्रह्मज्ञानी है। तम क्यों उसके प्रेमजाल में फंसी हो । उनसे निर्लिप्त हो जाओ, उनके मोह को छोड़ दो । राधा ने ब्रह्मज्ञानी उद्धव से कहा-उद्धव, तुम्हारा ब्रह्मज्ञान अधूरा है । तुम अगर यही समझते रहे कि कृष्ण और राधा के बीच पति-पत्नी' का शारीरिक संबंध है, तो यह तुम्हारा सोचना भी अपने आप में एक पाप है । हमारा और उनका संबंध कोई शरीर का नहीं, हृदय का है, आत्मा का है । वे आयें या न आयें, राधा उन्हीं के लिए जी रही है । तब राधा कहती है जो मैं ऐसा जानती रे प्रीत किये दुःख होय, जगत ढिंढोरा पीटती रे प्रीत न कीजे कोय । तुम समझ ही नहीं पा रहे हो । तुम्हारा मतलब तो यही है कि प्रेम दुःख देता है, पीड़ा देता है । तुम्हें नहीं पता कि यह प्रेम की पीड़ा हम लोगों को कितना आनंद देती है। हमारा संबंध कोई शरीर का नहीं, हृदय का है, आत्मा का है । अगर कृष्ण तक भी पहुँचना है, तो व्यक्ति आत्मा के जरिये ही पहुंच सकता है, अपने मन, बुद्धि और इंद्रियों के जरिये नहीं पहुंच सकता । हृदय एकमात्र मार्ग है आत्मा तक पहुँचने का, क्योंकि आत्मा हृदय में है; भक्ति, प्रेम और श्रद्धा का निवास मनुष्य के हृदय में ही होता है । हृदय मनुष्य का केन्द्र है, धुरी है । हृदय प्रेम, श्रद्धा और भक्ति का तीर्थस्थल है। श्रद्धा ऐसी हो, जैसी माँ की होती है। मां तो स्वयं श्रद्धा का साक्षात रूप है। श्रद्धा के मायने होते हैं उस व्यक्ति के प्रति समर्पित भावना जिसके बिना हम जी ही न पायें । भूल ही जाये व्यक्ति कि हम दो हैं । द्वैत का भाव टूट जाये, एक का भाव रह जाये। जितना प्रेम, जितनी श्रद्धा, जितना वात्सल्य माँ और बेटे के बीच होता है, वैसा ही संबंध होना चाहिये। वह हृदय ही क्या जो माँ के लिए, पिता और परमात्मा के लिए समर्पित 182 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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