SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 190
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है, हमारे अपने जीवन के मंदिर में, आत्मा के मंदिर में, भीतर बैठे देवता के मंदिर में । यह मंदिर मनुष्य का स्वयं का हृदय है । हृदयवान लोग ही आत्मा तक पहुंचते हैं, बुद्धिमान लोग उलझे हुए रह जाते हैं । बुद्धिमान आत्मा के बारे में सुन सकता है, पढ़ सकता है, लेकिन आत्मा की ओर उन्मुख नहीं हो सकता । आत्मा के बारे में जानना तो ज्ञानी का काम है । इसके बारे में चाहे जितना पढ़ लो, कंठस्थ कर लो, लेकिन प्राप्ति शून्य ही होगी। आत्मा के बारे में कितने दर्शन खड़े हुए हैं, पर इसका मतलब यह तो नहीं हुआ कि उन्होंने आत्मा को जान ही लिया। सत्य के बारे में जानना और सत्य को जानना-इन दोनों में ज़मीन-आसमान का फ़र्क है । सत्य के बारे में जानना बुद्धिगत कार्य है और सत्य या आत्मा को जानना चेतनागत, हृदयगत कार्य है । आत्मा के बारे में लोग बड़े-बड़े व्याख्यान दे देंगे। अगर उनसे पूछा जाये कि तुमने आत्मा को जाना है, तो उनसे जवाब देते न बनेगा । जिसको तुमने जाना ही नहीं, उसके बारे में तुम्हें कहने का हक़ नहीं है । मुझे याद है जब मैं दस-पन्द्रह साल पहले धुंआधार बोलता था तो हजारों की भीड़ प्रवचनों में उमड़ती थी। एक दिन मेरे मन में शंका हुई कि मैं दुनिया को कहता हूँ कि आत्मा का कल्याण करो। क्या है आत्मा और कैसी है आत्मा? किस रूह के कल्याण की मैं बात कह रहा हूँ ? कहीं ऐसा तो नहीं कि मैं भी दिग्भ्रमित हैं और लोगों के सामने भी दिशा-भ्रम पैदा कर रहा हूँ ? मन में उठने वाली उस प्रथम जिज्ञासा ने ही मुझे आत्मा की ओर उन्मुख किया। फिर कदम उस ओर बढ़े, योग से जुड़े, ध्यान से जुड़े, अध्यात्म की कई गहराइयां स्पष्ट हुईं। इस कारण यही कहना है कि जब तक अपने आपको न जान पाये, तो दूसरों के कल्याण की बातें मात्र व्यास-पीठ और सुधर्मा-पीठ पर बैठकर कथाकार और प्रवचनकार का दायित्व निभाना है। आत्मा के बारे में जानना सामान्य बात है, विद्वत्ता की बात है । आज नहीं तो कल उसका पांडित्य ग्रहण कर ही लोगे। हां, आत्मा को जानना, आत्मा में जीना-यह साधना की पहल है। चूंकि कृष्ण हमें एक-एक अध्याय से गुजारते हए आगे बढ़ा रहे हैं, इसलिए साधना की भी प्रेरणा देते हैं। अगर मन के भार को दरकिनार करके अपने आप तक पहुँचते हो, तो फिर मनुष्य के लिए कहीं कोई बंधन शेष रहता ही नहीं है । मन ही बंधनों के ताने-बाने बुनता है । __ जब भगवान वृंदावन से द्वारिका की ओर रवाना होते हैं, तो वे उद्धव के आत्मज्ञान का रहस्य | 181 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy