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________________ अज्ञानी और मूढ़ है । आखिर घर में खोई सूई को घर में ही ढूंढना पड़ेगा। तब राबिया ने कहा-मैं तो सोचती थी कि तुम लोगों को ज्ञान नहीं है, लेकिन तुम्हारी बातों से अब ऐसा नहीं लगता । तुम लोगों को पता है कि घर में खोई सूई को घर में ही ढूंढना पड़ेगा, फिर तुम लोगों से ही पूछती हूँ कि तुम परमात्मा को, अपने आपको बाहर क्यों ढूंढ रहे हो? ___ माना घर में अंधेरा है, मगर अंधेरे से पलायन करने से काम नहीं चलेगा। भले ही घर में अंधेरा क्यों न हो, प्रकाश भीतर में प्रज्वलित करना होगा और वह प्रकाश हम सबको प्रज्वलित करना है, अपने ही भीतर छिपी हुई आत्मा को पहचानना है । स्वयं में उतरना ही आत्मज्ञान के रहस्यों को जानने की कुंजी है। कृष्ण कहते हैं कि व्यक्ति अपनी आत्मा को पहचाने, मगर प्रश्न उठता है कि वह आत्मा है कहाँ ? उसको हम पहचानें कैसे? उस तक पहुँचें कैसे? उसके द्वार-दरवाजों को खोलने की कुंजी कौन-सी होगी? आत्मा को जानो, आत्मा को पहचानो, यह बात सुनते-सुनते तो बुढ़ापा आ गया, मगर आत्मा किसी के हाथ में न आई। उसी की तरफ़ संकेत करते हुए कृष्ण कहते हैं कि 'हृदय में स्थित आत्मा को तत्त्व से जानो।' इससे यह रहस्य उद्घाटित हुआ कि आत्मा रहती कहाँ है ? जवाब है हृदय में। हृदय तो भावों की व्यवस्था का नाम है । जब व्यक्ति अपने हृदय में उतरता है, अपने ही हृदय के पास आता है, तो वास्तव में व्यक्ति अपनी अन्तर्गुहा में दस्तक दे रहा है । अपने कदम उस ओर बढ़ा रहा है जहाँ वह स्वयं है । कृष्ण कहते हैं कि हृदय में स्थित आत्म-तत्त्व को योगीजन जानते हैं । हृदय मंदिर है । इस शरीर को हम मंदिर नहीं कह सकते, क्योंकि शरीर तो मनुष्य के पास भी है और पशु के पास भी है । पशु के गुणधर्म मनुष्य के शरीर में भी सक्रिय हैं । तो क्य हम अपने मन को अपने जीवन का मंदिर समझें? नहीं, मन मंदिर का रूप नहीं ले सकता, क्योंकि मन में बड़ी घृणा और वीभत्सता भरी है; मन में एक-दूसरे के लिए निंदा, एक-दूसरे के लिए कपट, एक-दसरे के लिए पीड़ा और पाप की भावनाएँ समाई हुई हैं । मन में तो एक-दूसरे को पछाड़ने की प्रतिस्पर्धा है । मन को हम मंदिर नहीं कह सकते। वह तो राग-द्वेष का दलदल है । वासना और कामना का बवंडर है। मन से जब हम आगे बढ़ते हैं अपने हृदय-स्थल तक, तो हमारा प्रवेश होता 180 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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