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होकर अपने आपको कुर्बान न कर सके । इसीलिए तो दो शब्दों का प्रयोग किया है-एक है दिल और दूसरा है हृदय । हृदय का संबंध माँ के साथ होता है और दिल का संबंध प्रेमी, प्रेमिका या पली के साथ होता है । हृदय का बिगड़ा हुआ रूप दिल है और दिल का सुधरा हुआ रूप हृदय है । हृदय अगर सक्रिय हो जाये तो परमात्मा को चाहेगा, दिल अगर सक्रिय हो जाये, तो पत्नी या पति को चाहेगा। मामला जब दिल का हो तो बात अलग ही बन जाती है । जीवन में ऐसा पुण्य करो कि हृदय सक्रिय रहे, माँ जैसी श्रद्धा हृदय में पनप जाये।
आप लोगों ने राजा पुरू के ज़माने की वह घटना सुनी होगी कि दो महिलाएँ लड़ती-झगड़ती दरबार में पहुँचीं । उनके साथ एक बच्चा था। वे दोनों इस बात पर तू-तू, मैं-मैं कर रही थीं कि वह बच्चा उन दोनों में से किसी एक का था, लेकिन दूसरी औरत उसको हथियाना चाहती थी। राजा ने धैर्यपूर्वक दोनों को सुना। राजा को कोई मार्ग न सूझा । अंततः राजा ने कुछ सोचकर कहा कि चूंकि इसके दो हकदार हैं, इसलिए बच्चे के दो टुकड़े करके दोनों में बांट दिये जायें।
राजा का निर्णय सनकर एक महिला चिल्ला पड़ी। नहीं, असली माँ यही है । मैं तो झूठ बोल रही थी। यह लड़का इसे ही दे दिया जाये । मेरी फरियाद गलत है। यह सुन राजा ने कहा 'असली माँ यही है।' यह झूठ नहीं, सच बोल रही है । इसका दिमाग़ नहीं, दिल बोल रहा है। दिमाग़ वाले बोल ही देंगे कि बच्चे के टुकड़े कर दिये जायें, परिवार, समाज और राष्ट्र को बाँट ही दिया जाये, लेकिन हृदय वाले लोग कभी भी टुकड़ों को पसंद नहीं करेंगे।
आदमी हृदयवान बने, हृदय के मार्ग से जीये, प्रेम को स्वीकारे, शांति को जीये । आपके पास हृदय नहीं है, तो कोई काम के नहीं हैं आप। आप कितने बुद्धिमान, कितने विद्वान और कितने ही अमीर क्यों न हों, कोई अर्थ नहीं है। हृदय ही नहीं है, तो तुम आत्मा के पास नहीं जीते। हृदय में उतरकर ही हम अपने आप तक पहुँच सकते हैं । हृदयवान होना आत्मवान होने की अनिवार्य शर्त है । बगैर हार्दिकता के मनुष्य, मनुष्य नहीं वरन् मशीन है, मृत है । हृदय में उतरो, हृदय का मार्ग प्रशस्त होने दो । हृदय के द्वार-दरवाजों को खोल ही लो। हृदय ही क्षीरसागर है, जहाँ विष्णु की शय्या है । हृदय ही वह मंदिर है, जहाँ अन्तर्यामी का वास है।
आत्मज्ञान का रहस्य | 183
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