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________________ सबको साधा क्या काम आयेगा? अपने कमरे को सजाया, सारे घर को सजाया, पर अपने हृदय, अपने भीतर के घर की सजावट की ओर तुम्हारा ध्यान नहीं जाता, तो बाह्य श्रृंगार स्वयं तुम्हीं पर व्यंग्य बन जाएगा। घर में झाडू लगाते समय अगर एक तिनका भी निकलकर गिर जाये, तो उसे तत्काल उठाते हो । कोई अगर कह ही दे कि जनाब, एक तिनका ही गिरा है। इससे क्या फ़र्क पड़ने वाला है ? तो तुम्हारा जवाब होगा कि अगर एक-एक तिनका यूं ही निकलता जाये, तो झाडू दो दिन में ही खत्म हो जायेगा । झाडू के तिनकों के प्रति तो तुम्हारी इतनी सजगता है, इतनी सचेतनता है, पर हमारे अपने जीवन के प्रति हमारी कितनी जागरूकता है? क्या कभी दो मिनट भी शांति से बैठकर अन्तर्गह में यह पड़तालने का प्रयास किया कि मेरे मन की स्थिति क्या है? मेरे मन में क्रोध का कितना तापमान है ? मेरे मन में कैसे उद्वेग उठते हैं? आँखें हमेशा औरों को देखती हैं, अपने आपको देखने की फुर्सत ही कहाँ है। तभी तो आदमी के जीवन में न तो अहिंसा की अस्मिता है, न सत्य का सौष्ठव है, न अचौर्य की चेतना है, न ब्रह्मचर्य और न अपरिग्रह की सजगता है । जीवन का कोई भी नैतिक मूल्य शेष नहीं रहता, अगर व्यक्ति अपने आपको न चीन्ह पाये। स्वयं को ही न जाना, तो कैसे जानोगे कि तुमने किसी की आत्मा को कष्ट पहुँचाया है । स्वयं को ही पूरी तरह न जान पाये, तो अपनी पत्नी और बच्चों को कैसे पूरी तरह पहचान पाओगे? तब यह नहीं कह सकते कि घर जाने पर पत्नी आग-बबूला होगी या हंसकर स्वागत करेगी। जो पत्नी दस मिनट पहले चंद्रमुखी लग रही थी, वहीं पांच मिनट पहले सूर्यमुखी नज़र आई और अब ज्वालामुखी बन बैठी है। किसी की मस्कान पर आस्था ही नहीं की जा सकती कि वह कब तक मुस्कान बनी रहेगी और कब अप्रसन्नता में तब्दील हो जायेगी । तब अपने बारे में कैसे भविष्यवाणी कर सकते हो? तुम्हारा आज कैसा है और आने वाला कल कैसा होगा, तुम नहीं कह सकते, लेकिन सच यह है कि अगर आप कल क्रोध करते रहे हैं, तो आज भी क्रोध किया होगा और आने वाले कल को भी इसकी पुनरावृत्ति होगी । कल अगर किसी के साथ बुरा बर्ताव किया, तो आज भी वही करोगे और आने वाले कल को भी वही दोहराते रहोगे । हर वर्तमान अतीत का पुनर्संस्करण होता है और हर भविष्य हमारे वर्तमान की परछाई होता है । इसलिए अपने आपको जान रहे हो, तो सारे जगत आत्मज्ञान का रहस्य | 177 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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