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________________ सबको सुना, सबके बारे में सुना, लेकिन खुद को न सुना तो अनसुने रह गये। सबको देखा, सबके बारे में देखा, पर अपने आपको न देख पाये, तो कुछ भी न देखा । दूसरों को जान लेने भर से जीवन का कल्याण नहीं हो जाता । दूसरों को जान-जानकर आदमी पंडित और व्यवहार-कुशल हो सकता है, लेकिन आत्मा को जाने बगैर व्यक्ति ज्ञानी नहीं हो सकता। कृष्ण कहते हैं ज्ञान वही है, जो व्यक्ति को संसार के बंधनों से मुक्त करवा दे, उसको उसका परमात्म-स्वरूप, उसका मौलिक स्वरूप प्रदान कर दे । बाकी का ज्ञान तो ज्ञान के नाम पर केवल पांडित्य को ओढ़ना भर है । दुनिया में पंडितों की कमी नहीं है, लेकिन कृष्ण जिन्हें ज्ञानी कहते हैं और जिनमें ज्ञान की अग्नि के द्वारा समस्त कर्म-बंधनों को जलाकर नष्ट करने की क्षमता होती है, वे तो विरले ही होते हैं। दुनिया में किताबों के पंडित तों ढेर सारे हैं । धर्म-अध्यात्म की शुरुआत किताबों से नहीं होती । वह तो व्यक्ति के अपने ही जीवन से, अपनी ही आत्मा से होती है। हम सबके भीतर एक महान् ग्रंथ, एक महान् धर्म-शास्त्र लिखा हुआ है। अगर सारे शास्त्रों को पढ़ा, पर स्वयं के ग्रन्थ के पठन से वंचित रह गये, तो निर्ग्रन्थ नहीं हो पाओगे । औरों को पार लगते हए देख रहे हो, लेकिन तुम स्वयं डूबते जा रहे हो, धंसते जा रहे हो, यह तो मूढ़ता ही है । और लोग सुधरें, यह अच्छी बात है, पर अपने आपको सुधारने का उत्तरदायित्व तो आखिर हम स्वयं पर ही है न ! इसीलिये मैंने कहा कि आत्मज्ञान जीवन का सबसे बड़ा पुण्य है और आत्म-अज्ञान ही सबसे बड़ा पाप है। आत्मज्ञान में स्वर्ग रहता है और आत्म-अज्ञान से बढ़कर कोई नरक नहीं होता। महावीर कहते हैं 'जे एगं जाणई से सव्वं जाणई ।' जो एक को जान लेता है, अपने आपको जान लेता है; वह सर्व को, सारे संसार को जान लेता है । जो अपने आपको जीत लेता है, वह सारे संसार का विजेता बन जाता है। अगर सारे संसार के विजेता बने, पर अपने आपको न जीत पाये, तो सिकंदर की तरह अंतिम घड़ियों में अपने जीवन के एक-एक पल के लिए आदमी मोहताज बना रहेगा और इस पछतावे में ही रुखसत हो जायेगा कि पाकर भी कुछ न पाया, जीतकर भी पराजित बने रहे । इसीलिए तो कबीर कहते हैं कि इक साधे सब सधे-एक को साधने में सब साध ही लिया जाता है, पर एक को भी न साध पाये, तो फिर 176 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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