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साथ होगी। विवेक सम्यक मार्ग है, सरल मार्ग है। भले आप संसार में जीयें, परिवार में जीयें, दाम्पत्य जीवन में जीयें, लेकिन विवेक आपके कर्तव्यों-कर्मों को कराते हए भी आपको उनसे अलग करता चला जायेगा।
लाश को लाश की भूख होती है, लाश की कोख कभी बांझ नहीं हुआ करती। लाश के कर्ज़ को उतारा जा सकता है,
कोख के कर्ज़ को कैसे उतारा जायेगा। यह शरीर तो एक लाश है और एक लाश को एक लाश की ही भूख होती है और उसकी कोख कभी बाँझ नहीं हुआ करती । इसलिए अन्तर्मन में यह विचार पैदा होता है कि क्यों न लाश के कर्ज़ के साथ कोख के कर्ज़ को भी उतार दिया जाये, लेकिन जैसे ही कोख के कर्ज़ को उतारने का भाव बनता है कि तभी लाश की छाती से दूध की एक बूंद नीचे गिर जाती है । आंखों से बहने वाले आंसुओं को तो पार किया जा सकता है, लेकिन छाती से बहे हुए दूध की बूंद को कैसे लांघा जायेगा? कर्त्तव्य-कर्मों को तो करना ही होगा, लेकिन कर्त्तव्य-कर्मों को करते हुए भी दूध के बूंद का कर्ज चढ़ाते और उतारते हए भी हम निर्लिप्त, बेदाग़, शांत और सौम्य-जीवन जी सकेंगे। और इसके लिए सीधा-सा, सरल-सा मार्ग होगा कि हम हर वक्त सचेतनता बनाये रखें।
जब-जब तुम्हारे भीतर चेतना का जागरण होता है, सचेतना आती है, विवेक पैदा होता है, तब-तब तुम्हारे भीतर सत्व गुणों की वृद्धि ही होती है, ऐसा समझो। जब-जब तुम्हारे भीतर लोभ और प्रवृत्ति पनपते जाते हैं, तब-तब यह जानो कि तुम्हारे भीतर रजोगुण का बढ़ावा हो रहा है। जब-जब मूर्छा, प्रमाद, आसक्ति तुम्हारे भीतर बढ़ती चली जाये, अज्ञान तुम्हारे भीतर दिखाई दे, तो समझना कि तमोगुण तुम्हारे भीतर सक्रिय हुआ है। तमोगुण से रजोगुण अच्छा, लेकिन रजोगुण से सतोगुण अच्छा । जैसे कांटे से कांटा निकाला जाता है, वैसे ही तुम भी कांटों को निकाल फैंको । तमोगुण को तो फैंकना ही है, रजोगुण को भी फैंक दो और जब लगे कि तमोगुण और रजोगुण-दोनों ही जीवन से नेस्तनाबूद हो रहे हैं, सत्व गुण से भी अपने आपको मुक्त कर लेना, क्योंकि गुणातीत होना ही कृष्ण की भाषा में मुक्ति को प्राप्त करने के लिए अंतिम, लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण चरण है । महावीर ने लेश्या का सिद्धान्त दिया है । कृष्णलेश्या और नीललेश्या
सतोगुण की सुवास | 173
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