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विद्यमान है । जब मैं मनुष्य को देखता हूं, तो मुझे नहीं लगता कि मनुष्य के भीतर का पशु समाप्त हो चुका है या सर्पराज की योनि समाप्त हो चुकी है। ___डार्विन ने प्रकृति से संबंधित जितने भी सिद्धान्त खोजे, वे सारे सिद्धान्त, सारे विश्व पर लागू होते हैं, लेकिन एक इंसान पर ही लागू नहीं होते । डार्विन कहता है कि बंदर से मनुष्य का विकास हुआ, पर मुझे नहीं लगता कि वह बंदरपन मनुष्य से अभी विलुप्त हुआ है । अगर हम अपने आपको टटोलें, तो पायेंगे कि वह बंदर अभी भी हमारे मन में बैठा हुआ है । कभी इस घर, कभी उस घर डोलता रहता है । कभी ये सुख, कभी वो सुख में कूद-फांद करता रहता है । ऐसा नहीं है कि सर्पराज मिट गया हो या हमारी सर्पराज कि योनि से मुक्ति हो गई हो। जब-जब मनुष्य क्रोध में आँखें लाल करेगा, तब-तब वह मनुष्य के रूप में सर्पराज ही होगा। भीतर का पशुत्व जब तक न मिटे, भीतर की पशुता से ऊपर न उठ पाओ, तब तक आकार मनुष्य का, लेकिन प्रकृति पशुता की ही रहेगी।
___ अगर कीड़ा कीचड़ में पैदा होता है, तो कीचड़ में ही धंसता है और हम संसार में पैदा होते हैं और संसार में ही धंसते हैं । कहते हैं कि पहले बड़े-बड़े सम्राटों और शूरवीरों के प्राण उनमें स्वयं में नहीं होते थे, वरन् किसी तोते में रख दिये जाते थे। उस व्यक्ति को मारने की लाख कोशिश करो, वह नहीं मरेगा, लेकिन तोते की गर्दन मरोड़ो, वह व्यक्ति झट से मर जायेगा। वे तोते तो चले गये, पर अब उन तोतों की जग़ह तिजोरियों ने ले ली है । तिजोरियों को लूट डालो, तो आदमी के प्राण-पंखेरू पल में उड़ जायेंगे। यह मनुष्य के लिए मकड़जाल का ही रूप है । जैसे मकड़ी अपने जाले को अपने भोजन और अपने जीवन की व्यवस्था के लिए बनती है, लेकिन वह उस मकड़जाल में उलझकर रह जाती है। यही हाल मनुष्य का है । वह भी पत्नी, बच्चों और परिवार में इसी तरह उलझकर रह जाता है और मुक्ति का कोई रसास्वादन उपलब्ध नहीं हो पाता।
तमोगुण तो हमारा बहुत कम है, लेकिन रजोगुण अब भी काफी जारी है । मनुष्य में शानोशौकत, ठाट-बाट से जीने का गुण विद्यमान है । तमोगुण मिट चुका है, इसलिए हम व्यभिचार से दूर हैं, किसी गरीब की झोपड़ी में आग नहीं लगाते, लेकिन रजोगुण होने के कारण हम पूरी तरह निर्मल और पावन नहीं हुए हैं। वो राजसी प्रवृत्ति जब-तब अंश या सर्वांश के रूप में सक्रिय हो जाती है, जाग्रत हो जाती है । सतोगुण की तरफ़ हमारी प्रवृत्ति हो, तो सुख और शांति हमारे
172 | जागो मेरे पार्थ
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