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________________ ज्ञानपूर्वक चलो, होशपूर्वक चलो । स्वयं के प्रति, स्वयं के विचारों के प्रति होश रखते हुए चलो, कहीं जाओ-आओ, कोई खतरा नहीं है। धर्म क्रियाकाण्ड में नहीं होता; धर्म केवल दान और पुण्य में नहीं होता । यह तो विवेक में जीवित रहता है । तुम किस तरह से उठते हो, किस तरह से बैठते हो, किस तरह से चलते हो? धर्म विवेक की इस चेतना में रहता है। कहीं ऐसा तो नहीं कि तामसिक भोजन कर रहे हो? खाना शरीर की आवश्यकता है, लेकिन यह पता लगाओ कि तुम क्या खा रहे हो, कैसा भोजन कर रहे हो? अगर धर्म ने आपको अंडा-मांस खाने की मनाही की है, तो वो इसलिए की है, ताकि हमारे भीतर तामसिकता न बने । अगर धर्म ने आपको शराब न पीने की सलाह दी है, तो वो इसलिए कि तमोगुण, जो व्यक्ति को प्रमाद-मूर्छा और निद्रा देता है, न जगे और भीतर में मदहोशी न छाये । तुम अगर शराब पीते हो, तो इससे समाज का भी अहित ही होता है और तुम्हारा स्वयं का भी । जैसे यादव कुमारों ने मदिरापान किया, तो नतीजतन द्वारिका का नाश हो गया। जिस द्वारिका का निर्माण भगवान श्रीकृष्ण ने किया, वही द्वारिका नष्ट-भ्रष्ट हो गई । हम-तुम ने भी इसके प्रति विवेक न रखा तो तुम भी मरोगे, तुम्हारा परिवार भी डूबेगा और समाज भी जीर्ण-शीर्ण होगा। अगर होश ही नहीं है, तो किस परिवार को सजाओगे, किसे संवारोगे। धर्म विवेक में है, धर्म यत्नाचारिता में है और विवेक सतोगुण में जीवित रहता है। कहते हैं कि जब आनंद यात्रा के लिए रवाना होने वाला था कि तभी उसने भगवान बुद्ध के पास पहुँचकर उनसे कहा-भगवन, जाने से पहले आपसे कुछ जानकारी लेना चाहता हूँ । भगवान ने कहा-पूछो । आनंद ने कहा कि भंते, मैं यात्रा पर निकल रहा हूँ। अगर रास्ते में मुझ महिलाएँ मिल जाएँ, तो मैं क्या करूं? पहले लोग बड़े सरल हुआ करते थे, तो ऐसे प्रश्न पनप जाते थे। भगवान ने कहा-वत्स, तू बचकर ही निकल जाना। आनंद ने पूछा-प्रभु, अगर बचकर निकलने की गुंजाइश न हो तो? भगवान ने कहा-तब आँखों को नीचे करके निकल जाना। आनंद ने पूछा-अगर परिस्थिति ऐसी बन गई हो कि रुग्ण महिला मिल जाये या वह दुर्घटनाग्रस्त हो गई हो, तो मैं क्या करूं? भगवान ने कहा-छूने से परहेज रखना । आनंद ने पूछा कि भगवान, अगर परिस्थिति ऐसी बन जाए कि बिना छए काम ही न चले, तो क्या करूं? भगवान ने कहा-वत्स, तब केवल एक ही बात याद रखना कि तुझे जैसी परिस्थिति मिले वैसी ही कर जाना, लेकिन 170 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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