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________________ होने लगी। लोगों ने कहा-भले मानुष, तेरी बीवी मर गई, इसलिए अब रो रहा है, लेकिन जब जिंदा थी, तो तू कहता था कि वह मर जाये । उसने कहा कि मैं इसलिए थोड़े ही रो रहा हूँ कि बीवी मर गई है। दरअसल दो साल पहले मेरी माँ मरी, तो गाँव वाले सारे लोग इकट्ठे होकर आये और कहने लगे कि बेटे, चिंता मत कर । माँ मर गई तो क्या हुआ, हम तेरी माँ जैसी ही तो हैं । तू हमें ही अपनी माँ समझ । जब एक साल पहले बहिन मरी, तो सारे गांव वाले इकट्ठे होकर आये और कहने लगे कि चिंता मतकर हम तेरी बहिन बनने को तैयार हैं । मैं रो इसलिये रहा हूँ, क्योंकि बीवी मर गई है और कोई भी महिला यह कहने को नहीं आई कि --. (हंसी) (मैं तेरी बीवी बनने को तैयार हूँ ।) आदमी अपनी वृत्तियों के कारण उलझा हुआ है, उन्हीं के लिए रोता है । वृत्तियों से ऊपर उठने पर मिलता है रजोगुण यानी बुद्धि । जिनमें भी रजोगुण की प्रधानता है और बुद्धि भी साथ में है, वे दिन-रात एक अन्तर-संघर्ष में जीते हैं, एक द्वंद्व में जीते हैं, क्योंकि भीतर में तो वृत्तियों की ज्वाला भड़क रही है और विचारों में बुद्धि प्रेरणा दे रही है कि तू क्या कर रहा है ? बाहर में तो विवेक रहता है, मगर भीतर में वृत्तियों का बवंडर रहता है । नतीजा यह निकलता है कि भीतर में बाढ़ उमड़ती रहती है, मगर बुद्धिमान व्यक्ति रोके रखता है अपने आपको। सतोगुण प्रधान व्यक्ति सुख में जीता है, शांति में जीता है। उसका मार्ग विवेक का मार्ग होता है । वह विवेक के मार्ग पर चलना पसंद करता है । संभव है, क्रोध की तरंग हो, राग और द्वेष की कोई सूक्ष्मतम ग्रंथि हो, लेकिन इसके बावजूद विवेकवान व्यक्ति अपने हर कदम को फूंककर रखता है, अपने मन और चित्त की हर वृत्ति के प्रति पूरी तरह सजग और सावचेत रहता है । सतोगुण के मार्ग से चलने वाले लोग विवेकवान बनें, यही प्रेरणा मेरी तरफ़ से है। बुद्धिमान बने या न बने, लेकिन विवेकवान बनो । ज़रूरी नहीं कि आप सब लोग बहुत ही पढ़े-लिखे हों या विद्वान हों, लेकिन एक अनपढ़ व्यक्ति भी विवेकवान बन सकता है । अगर बैठो, तो बैठने से पहले उस जगह को विवेक से देखो । देखो कि कहीं चींटी तो वहाँ नहीं चल रही है, उसे दूर करो। फिर उस जगह पर बैठो । रास्ते पर चल रहे हो, तो चलते हुए यह ध्यान रखो कि कहीं कोई कांच या कांटा तो नहीं पड़ा है ? अगर हम कांच और कांटे को न देख पाये, किसी पत्थर को न देख पाये और उससे ठोकर खा बैठे तो छोटे-मोटे जंतुओं को कैसे बचाओगे? चलो, सतोगुण की सुवास | 169 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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