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________________ राष्ट्रों के पास हजारों-हजार ऐसे बम मौजूद हैं। हमारी हालत तो लिक्विड आक्सीजन में गिरे व्यक्ति जैसी हो गई है । आक्सीजन मरने नहीं देगी, और लिक्विड जीने नहीं देगी । हम न तो पूरी तरह मर पा रहे हैं और न पूरी तरह जी पा रहे हैं । जी इसलिए रहे हैं कि मौत नहीं आई और मर इसलिए रहे हैं कि जीने की कला नहीं सीख पाये। दोनों से ही वंचित हैं । जीवन नरक बना है । जीवन स्वर्ग नहीं बन पाया, आनंद का महोत्सव नहीं बन पाया । तुम्हारी स्थिति कहीं अधर में लटके त्रिशंकु जैसी तो नहीं बन गई है । तुम्हारे लिए जीवन समय गुजारना भर है। सत्संग भी तुम्हारे लिए ऐसे ही हो गया है कि सेवानिवृत्त व्यक्ति आये और समय गुजारे । समय गुजारने के लिए ही गीता को सुनते हो, तो गीता तुम्हारा कल्याण नहीं करेगी । तब एक बार नहीं, जीवन भर गीता को पढ़ लो तो भी गीता जीवन के लिए सार्थकता का सूत्र नहीं दे पायेगी । समय गुजारने के लिए मत पढ़ो, समय को सार्थक करने के लिए गीता का सान्निध्यलो, सामीप्य लो तथा गीता का आकंठ पान करो । केवल बाहर के कोहराम, बाहरी संघर्ष से जीवन सार्थक नहीं होगा । शांति कबूतर उड़ाने की परम्परा, शान्ति की प्रार्थनाएँ बहुत फीकी पड़ चुकी हैं। अब तो एक जीवंतता चाहिये । अपने ही अन्तःकरण में उतरने का एक अभ्यास, एक ललक, एक प्यास चाहिये । दृढ़ संकल्प भरा व्यक्तित्व चाहिये । युद्ध बाह्य नहीं, चित्त की वृत्तियों से हो, स्वयं के तमस से हो । क्रान्ति हो अंधकार में प्रकाश की । बाह्य युद्ध से समस्याओं का समाधान नहीं हो सकेगा । कृष्ण अन्तरमन में चल रहे युद्ध को जीतने की प्रेरणा देते हैं । वे अन्तर्-युद्ध के प्रेरक हैं । अर्जुन तो एक प्रतीक है वीरत्व का, क्षात्रत्व का, फिसलने का । कृष्ण की गीता को आज इस सन्दर्भ में लिया जाना चाहिये । हर व्यक्ति युद्ध-विजेता बने, अन्तरमन का विजेता बने, आत्म-1 म - विजेता बने । 1 कृष्ण अगर युद्ध के प्रेरक बन रहे हैं, तो जरूर इसमें कोई रहस्य छिपा होगा । वे अगर किसी की मटकी फोड़ते हैं, तो यह किसी को नुकसान पहुँचाना नहीं है । भगवत् कृपा कि मटकी फूटी । पाप की मटकी उसने फोड़ी । कृष्ण जिसकी मटकी फोड़ दी, उसका तो निस्तार हुआ । कृष्ण अवतार हैं, तीर्थंकर की ने 8 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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