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है। कहा जाता है कि किसी ने कुरुक्षेत्र की एक यात्रा कर ली, उसके सात जन्म टल जाते हैं । क्या आप उसे वह कुरुक्षेत्र समझ रहे हैं, जहाँ दुर्योधन या दुःशासन की लाशें बिछी थीं? मैं तो उस कुरुक्षेत्र की बात कर रहा हूँ, जो मनुष्य के भीतर है । उसका अपना अन्तर्-धरातल ही वह कुरुक्षेत्र है, जिसकी माटी को यदि तम अपने शीश पर, सहस्रार पर लगाते हो, तो यह किसी तीर्थ की स्पर्शना से कम नहीं है।
कृष्ण कहते हैं-तुम्हारा अन्तर्हदय ही कुरुक्षेत्र है और वही धर्मक्षेत्र भी। कृष्ण उसी युद्ध के प्रांगण में खड़े होकर एक युद्ध का आह्वान करते हैं । वह आदमी ही क्या, उस आदमी का पौरुष ही क्या, जो लड़ न सका। लड़ो, अपने आप से । बाह्य युद्ध तो अब तक बहुत हो चुके । बाह्य युद्ध में तो अन्ततः हार ही होगी। महान् कहलाने वाला सिकन्दर भी हार गया । तुम किसी से भी न हारो, मगर मौत से तो हार ही जाओगे। मैं तो उस विजय की बात करता हूँ, जिसके आगे मौत भी परास्त हो जाये। तब मनुष्य की मृत्यु नहीं होती, मृत्यु से पहले निर्वाण-महोत्सव हो जाता है, ईश्वरत्व मुखरित हो जाता है, संबोधि और मोक्ष उपलब्ध हो जाता है।
बाहर का युद्ध तो अहंकार का युद्ध है, जिसकी अन्तिम परिणति तो पराजय ही है। 'ईगो' की लड़ाई तम्हें कब तक जिताती रहेगी। आखिर तो हारोगे ही। अहंकार टूटेगा, तो तुम भी टूट ही जाओगे। वह युद्ध ही क्या, जो पराजय दे। जीवन कोई पराजय का अभिक्रम नहीं, यह तो विजय की दास्तान है । इसलिए वह युद्ध लड़ें, जो हमें अपने आपको जिता दे । आदमी अपने क्रोध से लड़े, जिस क्रोध ने सारे घर में कोहराम मचा रखा है; उन विकारों से लड़े, जिनके चंगुल में फँसकर मनुष्य अपने वास्तविक मूल्यों को पहचान नहीं पाता; उस स्वार्थ से संघर्ष करे, जिसके चलते मनुष्य अपने पड़ोसी का भी ख्याल नहीं रख पाता । यदि बाहरी युद्ध ही करते रहे, तो ये युद्ध कोई समाधान नहीं दे पायेंगे।
राजनेता कबूतर तो शान्ति के उड़ाते हैं, पर उनकी योजना बमों की होती है । आज सारे संसार ने अपने विनाश के इतने इंतजाम कर लिये हैं कि इस सृष्टि को एक बार नहीं, कई-कई बार नष्ट किया जा सकता है । जरा कल्पना कीजिए कि जब एक अणुबम से सारा नागासाकी ध्वस्त हो सकता है, तो आज तो कई
गीता का पुनर्जन्म | 7
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