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वाला था कि साधु ने कहा-चलाओ, बड़े प्रेम से चलाओ। हम भी तो देखें अपनी आंखों से अपनी शरीर को कटते हुए । तुम जिसे काटना चाहते हो, मारना चाहते हो, वह तो मरा हुआ है ही। वह तो उसी दिन मर गया था, जिस दिन जीवन में संन्यास घटित हआ। तुम मेरे शरीर को ले जा सकते हो, मुझे नहीं ले जा सकते । भारत की आत्मा को कहीं नहीं ले जाया जा सकता। भारत की आत्मा पैसा नहीं, विज्ञान नहीं है । उसकी आत्मा तो उसकी साधुता है, तादात्म्य से मुक्ति है, उसका अध्यात्म है।
यह घटना मक्ति की क्रान्ति है। विदेह-जीवी ऐसा कर सकते हैं। आम आदमी तो देह-स्वभाव में ही तत्पर रहता है। शरीर है, तो शरीर का स्वभाव काम करेगा। जब तक तुम देह और मन से स्वयं को मुक्त न कर लो, देह और मन को तुम विजातीय रूप में न जान लो, तब तक देह-मन के धर्म सक्रिय रहेंगे।
देह को धारण किये हो तो देह के भीतर मन के परमाणु सक्रिय रहेंगे ही, उसके मन के अशुभ परमाणु और शुभ परमाणु सक्रिय होंगे ही होंगे। केवल एक अलग देखना ही व्यक्ति के मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त करेगा। देह-का-साक्षी विदेह-जीवन जीता है । वही मुक्ति के मार्ग को प्रशस्त कर सकेगा, जो शरीर से अपने को अलग देखता-जीता है ।
आत्मा और शरीर-दोनों को समान मूल्य देना पहला चरण हुआ। शरीर से ज्यादा आत्मा को मूल्य देना दूसरा चरण हुआ और तीसरा चरण यह हुआ कि जब तुम्हें लगे कि शरीर जर्जर हुआ या शरीर का उपयोग पूरा हुआ, तो शरीर को सर्प की केंचुली की तरह त्याग करके छोड़ देना, यही समाधिमरण हुआ, यही संलेखना हुई, यही मुक्ति के द्वार पर एक महादस्तक हुई।
चेतन रूप में जीओ और चेतन रूप में ही विदा ले लो । देह तुम्हें त्यागे, तुम देह को त्याग चलो। मन को बीच में से हटा दो, तो देह पेड़ पर लगे पत्ते से अधिक नहीं होगी। अगर यह समस्या पेश आये कि हम शुरू कहाँ से करें अपने तादात्म्य को तोड़ने के लिए, तो मैं यह समाधान देना चाहूंगा कि व्यक्ति पहले यह ढूंढे कि मेरा किन-किन से तादात्म्य है, मेरा किन-किन से लेप है ? लेप क्यों और लेप के परिणाम क्या निकलेंगे?
माना शरीर और मन का संयोग आँख ने देखा, आँख ने मन को प्रभावित
160 | जागो मेरे पार्थ
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