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किया, मन ने शरीर को उत्तेजित किया। शरीर अपने धर्म में आया । अब हम ढूंढें कि ऐसा कौन-सा कारण रहा, जिससे यह उत्तेजना पैदा हई। कारण ढूंढा। उस कारण से कौन-सा कार्य हुआ, उस कार्य को समझा और उस कार्य का क्या परिणाम हआ, उसको भी हमने देखा। अब ध्यान एकमात्र इसी तरीके से जग सकता है कि हम कितनी सजगता से, कितनी जिंदादिली के साथ अपने हर कार्यक्षेत्र, जीवन, जीवन की गतिविधि, जगत, जगत की गतिविधि को कितने ध्यान से देखते हैं। और कोई तरीका नहीं हो सकता। यह सीधा-सादा तरीका होगा कि जो भी घटनाएँ घटती हैं, उन घटनाओं के प्रति जागो, क्योंकि जीवन का सार तो बहुत साफ-सुथरा लिखा हुआ पड़ा है।
जीवना का पहला वेद स्वयं जीवन है । मनुष्य का पहला शास्त्र स्वयं उसका अपना जीवन है, इसलिए जीवन को पढ़ा जाये । कल ऐसी कौन-सी घटना घटी, जिसके कारण क्रोध पैदा हआ। कल क्रोध पैदा हुआ, कल प्रायश्चित हुआ। आज फिर से ही निमित्त आ रहे हैं, क्रोध पैदा हो रहा है, फिर प्रायश्चित हो रहा है, तो इसका अर्थ यह हुआ कि आदमी जीवन से कुछ सीखा और समझा ही नहीं। कल भी ठोकर खाई, आज भी ठोकर खाई, कल फिर ठोकर खाओगे। कोई अगर मुझसे पूछे कि अज्ञानी की परिभाषा क्या, तो मैं कहूंगा कि जो ठोकर पर ठोकर खाये, वह अज्ञानी । जो ठोकर खाकर संभल जाये, वो समझदार । जो आदमी दूसरे को ठोकर खाते देख जग जाये, वह ज्ञानी, वह प्रज्ञावान हुआ । ठोकर खाकर तो हर कोई जग जायेगा, पर देख तो यह रहा हूँ कि लोग ठोकर खाकर भी नहीं जग रहे हैं । न जीवन से क्रोध घटा, न कषाय मिटा, न विकार गया । खीज, ईर्ष्या, तृष्णा, मुर्छा कुछ भी न गई । ठोकर लग रही है, ठोकर पर ठोकर खा रहा है आदमी । यही आदमी की गहन मूर्छा है, गहन माया है।
कोई अगर पूछे परमात्मा से कि तुम किस जरिये से संसार को बनाते हो, इन मनुष्यों और प्राणियों को गढ़ते हो, तो भगवान यही कहेंगे कि मैं तुम्हारे मन में बसी माया, मूर्छा, तृष्णा से ही तुम सबको बनाता हूँ। अगर तुम इनको छोड़ दो, अगर तुम इनसे मुक्त हो जाओ, तो मुक्ति तुम्हारे द्वार पर दस्तक देगी। प्यास जगती है अध्यात्म की मनुष्य के भीतर सजगतापूर्वक जीने से । जो जगता है, वो उपलब्ध होता है । बाकी के लोग उसी कीचड़ में पैदा होते हैं, उसी कीचड़ में जीते हैं और उसी कीचड़ में मर जाते हैं । कीचड़ से कीड़ा भी पैदा होता है, कीचड़ से
हों निर्लिप्त,ज्यों आकाश | 161
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