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________________ दूसरा चरण है । पहला ही चरण यदि इसे बनाओगे तो फिसल जाओगे, क्योंकि पहला चरण संसार में रहते हुए संन्यास का चरण है और दूसरा पूरी तरह संन्यास का चरण है। जब तुम देह को पूरी तरह निर्मूल्य मानो; सन्तान, व्यवसाय, समाज, राष्ट्र सभी निर्मूल्य हुए। शरीर को निर्मूल्य किया, तो इसी शरीर से उत्पन्न सन्तान भी निर्मूल्य हो गई, बेटे से हम संन्यस्त हो चुके । वही व्यक्ति संन्यस्त होगा, जो देह-भाव से मुक्त होगा। इसलिए मैं यह बात कह रहा हूँ कि शरीर से तादात्म्य को तोड़कर आत्मा को सर्वाधिक मूल्य दो। तादात्म्य ही दुःख, भटकाव और तनावों का कारण है, यही संसार का सेतु है । मुक्ति शरीर से नहीं, शरीर के प्रति रहने वाले तादात्म्य से मुक्ति होनी चाहिये । तो दूसरा सूत्र यह हुआ कि शरीर से ज्यादा मूल्य आत्मा को दो, क्योंकि शरीर यहीं छूट जायेगा, केवल तुम्हीं यहाँ से प्रस्थान करोगे। मैंने सुना है : सिकंदर अपनी विश्व-विजय के दौरान हिन्दुस्तान की तरफ़ आ रहा था, तो यूनान से आते वक्त डायोजनिज ने कहा कि सिकन्दर, जब हिन्दुस्तान से तुम वापस आओ, तो अपने साथ वहाँ से एक साधु भी साथ लेते आना। सिकन्दर ने कहा-आपने भी क्या चीज मांगी है। तब डोयोजनिज ने कहा कि त सारे विश्व की सम्पत्ति को मेरे चरणों में लाकर रख देगा, मगर भारत से उसकी आत्मा को लाना बहुत कठिन होगा। भारत की आत्मा साधुता है । हिन्दुस्तान से लौटते वक्त सिकन्दर को डोयोजनिज का वाक्य याद आया कि एक साधु वहां से लेते आना। उसने साधु की तलाश करवाई, उसे ढुंढवाया। पता चला कि गांव से कुछ ही दूरी पर एक साधु, एक फ़क्कड़, औलिया संत अपनी मस्ती में रहता है। सिकन्दर ने अपने सिपाहियों को उस साधु को लाने के लिए भेजा। सिपाहियों ने जाकर कहा-आपको महान् सम्राट सिकन्दर बुला रहा है। साधु हंसा और कहा-साधु वही है, जो अपने सिवा किसी का आदेश नहीं मानता। जो औरों का आदेश मानकर चलता है, वह कैसा साधु । मैं नहीं आने वाला। कहते हैं कि सिकन्दर भी आया, उसने उससे अनुनय-विनय भी की, मगर साधु टस से मस न हुआ। उसने साफ मना कर दिया कि मैं नहीं चलने वाला। सिकन्दर ने इसे अपना अपमान समझा और तलवार निकाल ली। वह तलवार चलाने ही हों निर्लिप्त,ज्यों आकाश | 159 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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