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________________ कारण लिप्त नहीं होता, वैसे ही देह में सर्वत्र स्थित आत्मा देह से लिप्त नहीं होती । कृष्ण कहते हैं कि यह शरीर क्षेत्र है और इसमें रहने वाली जो आत्मा है, वह क्षेत्रज्ञ है। तुम अपने आप में संपूर्ण क्षेत्र हो और तुम्हारे भीतर रहने वाली आत्मा संपूर्ण क्षेत्रज्ञ है । जैसे एक अकेला सूरज आसमान में रहकर सारे ब्रह्माण्ड को रोशनी देता है, ऐसे ही यह एक अकेली आत्मा संपूर्ण शरीर में प्रकाशित रहती है, संपूर्ण शरीर में चेतना को परिव्याप्त करती है । शरीर और आत्मा दोनों अलग-अलग तत्त्व, लेकिन दोनों के योग का नाम ही जीवन है और दोनों के संयोग के टूटने का नाम ही मृत्यु है, इसलिए मृत्यु बिखराव है और जीवन जुड़ाव है, खिलावट है । जैसे एक नारियल होता है, जिसकी संरचना कुछ हटकर, कुछ अलग होती है। नारियल के ऊपर जटा होती है, जटा के भीतर कवच या ठीकरी होती है । कवच के भीतर गिरी और गिरी के भीतर पानी होता है । नारियल को बजाओ तो पानी बजेगा, पर अगर पानी को सुखा डालो तो फिर गोटा बजेगा | जटा चढ़ी हुई है, कवच भी है, फिर भी एक अलगाव आ चुका है । शरीर और आत्मा में जब तक तादात्म्य बना रहेगा, तब तक हमारी स्थिति ठीकरी से लिपटी चोटी सी होगी, पर अगर शरीर से आत्मा का तादात्म्य टूट जाये, लेप से निर्लेप हो जाये तो पानी सूखा, वासना बिखरी और आत्मा अलग, शरीर अलग। ऐसा ही हमारा अपना जीवन है, जिसमें शरीर और आत्मा परस्पर घुले-मिले हैं, पर एक दूसरे को अलग, एक दूसरे को जुदा किया जा सकता है । जुदाई का अनुभव किया जा सकता है । महावीर और पतंजलि ने इसी को भेद-विज्ञान की संज्ञा दी है I मेरे जाने, शरीर शरीर है, आत्मा आत्मा । दोनों साथ, दोनों भिन्न । साथ का आनन्द भी लो और भिन्नत्व का बोध भी बरकरार, जीवित रखो। खुद को खुद से अलग देखो, देह से देही को भिन्न पहचानो और फिर देह को जीओ । फिर कोई खतरा नहीं है । तुम विदेह-जीवी हुए। ऐसा चैतन्य-जीवन ही, जीवन है, मुक्त जीवन है। जीवन को ऐसा ही धरातल चाहिये । तादात्म्य टूट जाये, तो अच्छा है, न टूटे, तो भी क्षेत्रज्ञ का, वीणा और संगीत का बोध तो जी ही सकते हो । आज का बोध, आज नहीं तो कल, तुम्हें मुक्त करेगा । 156 | जागो मेरे पार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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