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________________ चूंकि हर व्यक्ति के लिए तादात्म्य को तोड़ पाना संभव नहीं है, इसलिए मैं यह सूत्र दूंगा कि शरीर को शरीर जितना मूल्य दो और आत्मा को आत्मा जितना मल्य दो। शरीर को अगर जरूरत से ज्यादा मल्य दे दिया, तो या तो आप अव्वल दर्जे के भोगी हो जायेंगे या अव्वल दर्जे के तपस्वी हो जायेंगे। अगर भोगी हो गये, तो खूब खाओगे-पीओगे और अगर यह समझ लिया कि शरीर को सुखाना ही धर्म है, तो खूब तपस्या करोगे, दो-दो महीनों तक उपवास, छः-छः महीनों तक उपवास । क्यों इतनी ज्यादती करते हो? आदमी उपवास इसलिए करता है, ताकि भोजन के प्रति रहने वाली लिप्तता, आसक्ति छूट सके, पर उपवास कर लिया और पारने वाले दिन उपवास की सारी खानापूर्ति कर डाली, तो उपवास की सार्थकता कहाँ रही ! होता यही है, जब उपवास करना है तो पहले दिन जम कर खाया जाता है। लोगों के हाथ से धर्म की समझ छूट चुकी है । उपवास करना है, जीवन की सात्विकता के लिए, शरीर की शुद्धि के लिए, इन्द्रियों के निग्रह के लिए। मन की स्वच्छता के लिए उपवास करो । उपवास स्वयं में वास करने की कला है। दूसरी तरफ लोग कहते हैं कि कल मेरे फलां वार का व्रत था, आज फलां वार का व्रत है। लोग दिनभर खाते-पीते हैं और व्रत का व्रत । क्यों अपने आपको धोखा देते हो । कौन कहता है व्रत करो? करना है, तो बड़े प्यार से, व्रत के प्रति सम्मान का भाव रखते हुए व्रत करो । विरति से व्रत सार्थक होता है । खाने की इच्छा होती है, तो खा लो। जीभ को ललचा-ललचाकर, उसे रोककर व्रत करना ठीक नहीं है। ऐसा करना अच्छी बात नहीं है। शरीर के प्रति ज्यादती नहीं, न भोग की दृष्टि से और न त्याग की दृष्टि से, क्योंकि शरीर सिर्फ़ साधन है, शरीर इस पार से उस पार लगने की एक नौका है और नौका का उपयोग इतना ही है कि तुम पार लग सको । नौका को सजाओगे-संवारोगे या घिसोगे तो क्या होने वाला है। नौका तो बस दुरुस्त होनी चाहिये, शरीर स्वस्थ होना चाहिये। ___ शरीर की जो आवश्यकताएँ हैं, उन्हें पूरा होने दो, लेकिन शरीर के विकारों में आत्मा को मत उलझाओ । इच्छाओं के बहकावे में मत आओ । इच्छाओं का नियमन किया जाना चाहिये । 'इच्छा निरोधस्तपः' इच्छाओं का निरोध करना ही तप है। शरीर का नहीं, इच्छाओं का निरोध करना तप है । जब कृष्ण क्षेत्र की बात करते हैं तो वे कहते हैं कि यह शरीर क्षेत्र है । मन, बुद्धि, अहंकार क्षेत्र हैं, लेकिन हों निर्लिप्त,ज्यों आकाश | 157 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003890
Book TitleJago Mere Parth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherJityasha Foundation
Publication Year2002
Total Pages234
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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